अमृतस्य पुत्रोहऽम
कौन कहता है - अमृतस्य पुत्रोहऽम ?
गुरु कहता है मनुष्य को, तू अमृत का पुत्र है । वेद कहता है तू अमृत का पुत्र है । ऋषियों ने, मुनियों ने अपनी आत्मानुभूति के द्वारा जाना है कि यह मनुष्य अमृत का पुत्र है ।
शरीर घट है, घट के भीतर अमृत है । इस शरीर घट के भीतर आत्म तत्व आत्मा के रुप में स्थित है और इस आत्म तत्व से अमृत का श्रोत बहता है और अनवरत बहता ही रहता है । भीतर देखेगा त
कौन कहता है - अमृतस्य पुत्रोहऽम ?
गुरु कहता है मनुष्य को, तू अमृत का पुत्र है । वेद कहता है तू अमृत का पुत्र है । ऋषियों ने, मुनियों ने अपनी आत्मानुभूति के द्वारा जाना है कि यह मनुष्य अमृत का पुत्र है ।
शरीर घट है, घट के भीतर अमृत है । इस शरीर घट के भीतर आत्म तत्व आत्मा के रुप में स्थित है और इस आत्म तत्व से अमृत का श्रोत बहता है और अनवरत बहता ही रहता है । भीतर देखेगा त
ो जानेगा कि अमृत का श्रोत बह रहा है ।
अमृत का अनुभव प्रेम के द्वारा होता है ।
अमृत का अनुभव ज्ञान के द्वारा होता है ।
अमृत क्या है ? प्रेम । प्रेम मानव का जीवन है । यदि मानव को किसी से प्रेम न मिले तो उसका जीवन दुभर हो जाता है । प्रेम हृदय को सरस बनाता है । प्रेम को विकास में लाने के लिये एक और साथी चाहिये । प्रेम मोह नहीं, वासना नहीं, स्वार्थ नहीं, प्रेम तो अमृत है, ज्ञान तो अमृत है । प्रकाश अधंकार मिटाता है यह सर्व विदित है । आत्मा का अनुभव जब होता है तो वह अमर ज्योति का भाव लाता है ।
आत्मा अमर है । अमर का प्रेम अमृत, अमर का ज्ञान - अनुभव अमृत है । प्रेम अमर, प्रेमी अमर । ज्ञान अविनाशी, ज्ञान का प्रकाश अमर, उस ज्ञान को पाने वाला भी अमर । प्रेम से सृष्टि की रचना हुई और प्रेम से ही मानव का अवतार हुआ । अमृत को पान करने वाला तथा अन्य जन को पान कराने वाला इस सृष्टि में केवल मानव ही है । तभी तो वेदों ने कहा "अमृतस्य पुत्रोहऽम" । तू अमृत से बना है और अमृत ही पान करने वाला है ।
जिस फल को संसार ने विष कहा संतो ने उसी फल से अमृत निकाल कर अनुभव करा दिया । देखना और अनुभव करना दोनों में अन्तर है । देखती है आखें, अनुभव करता है हृदय और मन । मन ने अनुभव पाया है संतो के समीप बैठ कर । आखें तो देखती ही रहती है रात-दिन बाहर का दृश्य, अनुभव तो अन्दर हृदय में होता है । अनुभव को बाहरी साथ की आवश्यकता नहीं । अनुभव तो भीतरी चेतना कराती है । तो अमृत का पुत्र अमृत पाने आया है, हृदय में अहिर्निश आनन्द-आनन्द की ध्वनि होती है । प्रकृति में भी ध्वनि हो रही है - "तू ही, तू ही, तू ही, तू ही" की अहिर्निश ध्वनि । मानव के हृदय के अन्दर भी ध्वनि हो रही है, "आनन्द-आनन्द-आनन्द-आनन्द" । यह आनन्द की ध्वनि कभी-कभी झंकार भी पैदा करती है कभी प्रतिध्वनि के रुप में गूँजती है ।
अमर क्या है ? आत्मा-परमात्मा । आत्मा मनुष्य में परमात्मा सर्वव्यापी सृष्टि के कण कण में फैला हुआ है । परमात्मा का ही अशं है आत्मा । आत्मा जब हृदय में बसी तो अमृत का पुत्र कहलाया मनुष्य । सद्गुरु ने कहा-तू अमृत का पुत्र है तो परम भाव में रह । तू विष पीने के लिये नहीं आया । तू ऐसे अमर भाव के वस्त्र पहन कि तुझे संसार का, माया का कोई प्रलोभन विनाशी न बना सके । तेरा ज्ञान अविनाशी तेरा प्रेम अमर । तू छोटा कहाँ ? तू तुच्छ कहाँ ? बार-बार तुझे यही कहना है - अमृतस्य पुत्रोहऽम ।
वाणीः प्यार मर गया । नहीं, प्यार अमर है, आनन्द अमर है, आत्मानन्द अमर है ।
श्रीमती सुलोचना देवी बगडिया
अमृत का अनुभव प्रेम के द्वारा होता है ।
अमृत का अनुभव ज्ञान के द्वारा होता है ।
अमृत क्या है ? प्रेम । प्रेम मानव का जीवन है । यदि मानव को किसी से प्रेम न मिले तो उसका जीवन दुभर हो जाता है । प्रेम हृदय को सरस बनाता है । प्रेम को विकास में लाने के लिये एक और साथी चाहिये । प्रेम मोह नहीं, वासना नहीं, स्वार्थ नहीं, प्रेम तो अमृत है, ज्ञान तो अमृत है । प्रकाश अधंकार मिटाता है यह सर्व विदित है । आत्मा का अनुभव जब होता है तो वह अमर ज्योति का भाव लाता है ।
आत्मा अमर है । अमर का प्रेम अमृत, अमर का ज्ञान - अनुभव अमृत है । प्रेम अमर, प्रेमी अमर । ज्ञान अविनाशी, ज्ञान का प्रकाश अमर, उस ज्ञान को पाने वाला भी अमर । प्रेम से सृष्टि की रचना हुई और प्रेम से ही मानव का अवतार हुआ । अमृत को पान करने वाला तथा अन्य जन को पान कराने वाला इस सृष्टि में केवल मानव ही है । तभी तो वेदों ने कहा "अमृतस्य पुत्रोहऽम" । तू अमृत से बना है और अमृत ही पान करने वाला है ।
जिस फल को संसार ने विष कहा संतो ने उसी फल से अमृत निकाल कर अनुभव करा दिया । देखना और अनुभव करना दोनों में अन्तर है । देखती है आखें, अनुभव करता है हृदय और मन । मन ने अनुभव पाया है संतो के समीप बैठ कर । आखें तो देखती ही रहती है रात-दिन बाहर का दृश्य, अनुभव तो अन्दर हृदय में होता है । अनुभव को बाहरी साथ की आवश्यकता नहीं । अनुभव तो भीतरी चेतना कराती है । तो अमृत का पुत्र अमृत पाने आया है, हृदय में अहिर्निश आनन्द-आनन्द की ध्वनि होती है । प्रकृति में भी ध्वनि हो रही है - "तू ही, तू ही, तू ही, तू ही" की अहिर्निश ध्वनि । मानव के हृदय के अन्दर भी ध्वनि हो रही है, "आनन्द-आनन्द-आनन्द-आनन्द" । यह आनन्द की ध्वनि कभी-कभी झंकार भी पैदा करती है कभी प्रतिध्वनि के रुप में गूँजती है ।
अमर क्या है ? आत्मा-परमात्मा । आत्मा मनुष्य में परमात्मा सर्वव्यापी सृष्टि के कण कण में फैला हुआ है । परमात्मा का ही अशं है आत्मा । आत्मा जब हृदय में बसी तो अमृत का पुत्र कहलाया मनुष्य । सद्गुरु ने कहा-तू अमृत का पुत्र है तो परम भाव में रह । तू विष पीने के लिये नहीं आया । तू ऐसे अमर भाव के वस्त्र पहन कि तुझे संसार का, माया का कोई प्रलोभन विनाशी न बना सके । तेरा ज्ञान अविनाशी तेरा प्रेम अमर । तू छोटा कहाँ ? तू तुच्छ कहाँ ? बार-बार तुझे यही कहना है - अमृतस्य पुत्रोहऽम ।
वाणीः प्यार मर गया । नहीं, प्यार अमर है, आनन्द अमर है, आत्मानन्द अमर है ।
श्रीमती सुलोचना देवी बगडिया
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