इस संसार में संतान दो प्रकार की होती है-जड़ और
चेतन। व्यक्ति द्वारा निर्मित कृतियां भी व्यक्ति की संतान की श्रेणी में
आती हैं। चेतन संतान तो पुत्र/ पुत्री रूप ही होता है। सृष्टि में संतान
उत्पन्न करने का एक ही सिद्धान्त है :-
पूर्ण मद: पूर्ण मिदम् ..
इसका अर्थ है कि व्यक्ति भी पूर्ण है, संतान भी पूर्ण है और पूर्ण में से पूर्ण निकल जाने पर शेष भी पूर्ण ही रहता है। सिद्धान्त रूप में संतान और माता-पि
पूर्ण मद: पूर्ण मिदम् ..
इसका अर्थ है कि व्यक्ति भी पूर्ण है, संतान भी पूर्ण है और पूर्ण में से पूर्ण निकल जाने पर शेष भी पूर्ण ही रहता है। सिद्धान्त रूप में संतान और माता-पि
ता में विशेष अन्तर नहीं है। दोनों ही सृष्टि क्रम के अंश रूप में पैदा होते हैं।
मां का माया रूप ही संतान का स्वरूप बनाता है। हम प्रकृति की संतान हैं। प्रकृति (क्षर) अक्षर पुरूष की संतान है। अक्षर स्वयं भी अव्यय पुरूष की संतान है। अव्यय ब्रह्म से उत्पन्न होता है। अत: हम सब उसी ब्रह्म की संतान हैं। जितने तत्व ब्रह्म के स्वरूप में हैं, वे सारे भिन्न-भिन्न मात्रा - तारतम्य से हमारे भीतर मौजूद हैं। जब तक हम हैं, हमारे साथ ये सारे बंधे हैं। हमारे रहते इनमें से किसी की भी मुक्ति नहीं हो सकती। इसी तरह हमारे साथ पितृ संस्था की सात पीढियां जुड़ी होती रहती हैं। हम भी सात भावी पीढियों के साथ जुड़े रहेंगे। संतान क्रम का बन्धन है। मारी आकृति पितृ प्राण से, प्रकृति देव प्राण से तथा अहंकृति ऋषि प्राण से बनती है। पार्थिव पितृ प्राण से जाति बनती है। चांद्र देव प्राण से वर्ण का विकास होता है। ऋषि प्राण से गौत्र का विकास होता है।प्रकृति ही माया है। इस पर नियंत्रण संस्कारों से ही संभव है। यही संतान के प्रति व्यक्ति की भूमिका है।
मां का माया रूप ही संतान का स्वरूप बनाता है। हम प्रकृति की संतान हैं। प्रकृति (क्षर) अक्षर पुरूष की संतान है। अक्षर स्वयं भी अव्यय पुरूष की संतान है। अव्यय ब्रह्म से उत्पन्न होता है। अत: हम सब उसी ब्रह्म की संतान हैं। जितने तत्व ब्रह्म के स्वरूप में हैं, वे सारे भिन्न-भिन्न मात्रा - तारतम्य से हमारे भीतर मौजूद हैं। जब तक हम हैं, हमारे साथ ये सारे बंधे हैं। हमारे रहते इनमें से किसी की भी मुक्ति नहीं हो सकती। इसी तरह हमारे साथ पितृ संस्था की सात पीढियां जुड़ी होती रहती हैं। हम भी सात भावी पीढियों के साथ जुड़े रहेंगे। संतान क्रम का बन्धन है। मारी आकृति पितृ प्राण से, प्रकृति देव प्राण से तथा अहंकृति ऋषि प्राण से बनती है। पार्थिव पितृ प्राण से जाति बनती है। चांद्र देव प्राण से वर्ण का विकास होता है। ऋषि प्राण से गौत्र का विकास होता है।प्रकृति ही माया है। इस पर नियंत्रण संस्कारों से ही संभव है। यही संतान के प्रति व्यक्ति की भूमिका है।
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