इस जगत में सुख-दुःख, मान-अपमान, हर्ष-शोक आदि
द्वन्द्व शरीर के धर्म हैं। जब तक शरीर है, तब तक ये आते जाते रहेंगे, कभी
कम तो कभी अधिक होते रहेंगे। उनके आने पर तुम व्याकुल मत होना। तुम पूर्ण
आत्मा हो, अविनाशी हो और सुख-दुःख आने जाने वाले हैं। वे भला तुम्हें कैसे
चलायमान कर सकते हैं ? उनका तो अपना कोई अस्तित्व ही नहीं है। वस्तुतः, वे
तो तुम्हारे अस्तित्व का आधार लेकर प्रतीत होते हैं। तुम उनसे भिन्न हो
और उन्हें प्रकाशित करने वाले हो। अतः उन्हें देखते रहो, सहन करो और
गुजरने दो। सर्वदा आनंद में रहो एवं शांतमना होकर रहो, सहन करो और गुजरने
दो। सुख-दुःख देने वाले कोई पदार्थ नहीं होते हैं वरन् तुम्हारे मन के भाव
ही सुख-दुःख पैदा करते हैं। इस विचार को सत् वस्तु में लगाकर अपने-आपमें
मग्न रहो और सदैव प्रसन्नचित्त रहो। उद्यम न त्यागो। प्रारब्ध पर भरोसा
करना कमजोरी का लक्षण है।
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