वेदो में लिखी गई कुछ ऐसी बाते भी है जिसे कुछ लोगो ने जानबूझकर दबा दिया और विकृत अर्थो में लोगो के सामने रखा.
यजुर्वेद के मंत्रों को भली प्रकार जानने के लिए हमें उन मंत्रो की क्रमानुसार व्याख्या करनी होगी.
यजुर्वेद अध्याय २३ मंत्र २१.
उत्सक्थ्या अव गुदं धेहि समञ्जिं चारया वृषन् | य स्त्रीणां जीवभोजन: || (हे बलशाली - दुष्टो के दमनकर्ता, जो लोग अपनी स्त्रियों को क्रीड़ा एवं व्यसन में नियोजित करके अपनी जीविका प्राप्त करते हैं, आप उनको प्रताड़ित करें तथा स्त्रियों द्वारा विद्या और बुद्धि के क्षेत्र में उत्तम सुख की स्थापना करें .)
यह श्लोक स्त्री शिक्षा पर ज़ोर भी देता है तथा इसका पक्षधर भी है.
यजुर्वेद अध्याय २३ मंत्र २२.
यकासकौ शकुन्तिकाहलगिति वञ्चति | आहन्ति गभे पसो निगल्गलिती धारका ||
(आध्वर्यु का कथन - यह जो शक्ति धारण किए प्रवाहमान जल है, शकुन्ति (पक्षी) के समान अद्यातजनित शब्द करता है. इस उत्पादक जल में यज्ञ तेज आता है. तेज धारण किया हुआ जल गल-गल ध्वनि करता है.)
यजुर्वेद अध्याय २३ मंत्र २३.
यकोसकौ शकुन्तक ऽ आहलगिति वञ्चति | विवक्षत ऽ इव ते मुखमध्वर्यो मा नस्त्वमभि भाषथा: ||
(कुमारी कहती है - हे अध्वर्यु, आपका बोलने को आतुर मुख शकुन्तक पक्षी की तरह सतत शब्द कर रहा है. आप केवल यज्ञीय सन्दर्भ में अपनी वाणी का प्रयोग करें.)
यजुर्वेद अध्याय 21 मंत्र 60
सुपस्था ऽ अद्य देवो वनस्पतिरभवदश्विभ्या छागेन सरस्वत्यै मेषेणेन्द्राय ॠषभेणाक्षस्तान मेदस्त: प्रति पचतागृभीषतावीवृधन्त पुरोडाशैरपुरश्विना सरस्वतीन्द्र: सुत्रामा सुरासोमान् ||
(यज्ञस्थल मे वनस्पतिदेव ने उपस्थित होकर छाग (औषधि) द्वारा अश्विनिकुमारो को, मेष (औषधि) द्वारा सरस्वतिदेवी को तथा ऋषभ (औषधि) द्वारा इंद्रदेव को प्रसन्न किया. संतुष्ट हुए इंद्रदेव ने अश्विनिकुमारो और देवी सरस्वती के साथ माहौषधियो का तीक्ष्णरस तथा सोम पान किया.)
अथर्ववेद के मंत्रों की व्याख्या.
अथर्ववेद कांड ४ सूक्त ४ मंत्र १
यां त्वा गन्धर्वो अखनद वरुणाय मृत भ्रजे | तां त्वा वयं खनामस्योषधिं शेपहर्षणीम् ||
(हे औषधे, वरुण (वरणिय मनुष्यों) के लिए आपको गन्धर्वो ने खोदा था. हम भी इंद्रिय-शक्ति बढ़ाने वाली औषधि आपको खोदतें हैं.)
अथर्ववेद कांड ४ सूक्त ४ मंत्र ६
अद्याग्ने अद्य सवितरद्य देवि सरस्वती | अद्यास्य ब्राह्मणस्पते धनुरिवा तानया पस: ||
(हे अग्निदेव, हे सवितादेव, हे सरस्वती, हे ब्राह्मणस्पाते. आप इस मनुष्य की इंद्रियों को बल प्रदान करके उसे धनुष के समान प्रहरक बनाएँ.)
अथर्ववेद कांड ४ सूक्त ४ मंत्र ८
अश्वस्याश्वतरस्याजस्य पेतवस्य च | अथ ऋषभस्य ये वाजास्तानस्मिन धेहि तनूवशिन ||
(हे औषधे, घोड़ा, बैल, मेढ़ा (नर-भेड़) आदि के शरीर मं जो ओजस् है, उसे मनुष्य के शरीर में स्थापित करें.)
अथर्ववेद कांड ६ सूक्त १०१ मंत्र ३
आहं तनोमि ते पासो अधि ज्यामिव धन्वनि | क्रमस्वर्श इव रोहितमनवग्लायता सदा ||
(हे पुरुष, अब हम लक्ष्य वेधन में समर्थ धनुष पर चढ़ी प्रत्यंचा के समान तुम्हारे शरीर को पुष्ट करतें हैं. तुम प्रसन्न मन ऐवं पुष्ट शरीर वाले होने के बाद. अपनी जीवानसंगिनी के सदा साथ रहो.)
अथर्ववेद कांड १४ सूक्त २ मंत्र ३८
तां पूषञ्छिवतमामेरयस्व यस्यां बीजं मनुष्या३ वपन्ति | या न ऊरु उशती विश्रयाति यसयायामुशन्त: प्रहरेंम शेप: ||
(हे पुषन् (पोषण करने वाला) आप उस कल्याणकारी उर्वारा शक्ति को प्रेरित करें. जिसमे मनुष्य बीज वपन करतें हैं. वह उल्लासित होकर अपने ऊरु (खेती योग्य भूमि) प्रदेश को विस्तरित करे. जिससे वहाँ पर बीज बोया जाए.)
अथर्वेद कांड २० सूक्त १३३ मंत्र १-४
विततौ किरणौ द्वौ तावा पिनष्टि पुरूष: | न वै कुमारी तत तथा यथा कुमारी मन्यसे ||
मातुष्टे किरणौ द्वौ निवृत: पुरुषा नृते | न वै कुमारी तत तथा यथा कुमारी मन्यसे ||
निगृह्य कर्णकौ द्वौ निरा यच्छसि मध्यमे | न वै कुमारी तत तथा यथा कुमारी मन्सये ||
उत्तनायै शयानायै तिष्ठन्ती वाव गुहसि | न वै कुमारी तत तथा यथा कुमारी मन्सये ||
(इन सभी मंत्रो को प्रवहलिका पहेलियाँ कहा जाता है. जो मनुष्य की बुद्धि (कुमारी) और माया (किरणौ) का परस्पर धन(वित) और ममता(मातुष्टे) के साथ संबंध व्यक्त करती हैं (१-२). हे मध्यमे, आप जड़ और चेतन दोनो कर्णो (छोरो) को नियोजित कर देतीं हैं, ऐसा भी नही हैं (३). ये पूरी प्रकृति सोते जागते माया के अधीन ही रहती हैं. ऐसा भी नही हैं (४).)
मनुष्यों की समानता से संबंधित.
सह्रदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि व: |
अन्यो अन्यमभि हर्यत वत्सं जात्मिवाघ्न्या ||
(हे मनुष्यों ! हम आपके लिए हृदय को प्रेमपूर्ण बनाने वाले तथा सौमनस्य बढाने वाले कर्म करते हैं. आप लोग परस्पर उसी प्रकार व्यवहार करें, जिस प्रकार गौ अपने बछड़े से स्नेह करती है.)
अनुव्रत: पितु: पुत्रो मात्रा भवतु संमना: |
जाया पत्ये मधुमति वाचं वदतु शन्तिवाम ||
(पुत्र अपने पिता के अनुकूल कर्म करने वाला हो और पता के साथ सामान विचार से रहने वाला हो. पत्नी अपने पति से मधुरता तथा सुख से युक्त वाणी बोले.)
येन देवा न वियन्ति नो च विद्विष्ते मिथ: |
तत कृन्मो ब्रह्म वो गृहे संज्ञान पुरुषेभ्य: ||
(जिसकी शक्ति से देवगण भी विपरीत विचार वाले नहीं होते और आपस में द्वेष नहीं करते है. उस सामान विचार को सम्पादित करने वाले ज्ञान को हम आपके घर के मनुष्यों के लिए प्रयुक्त करते हैं.)
स्त्री या नारी शक्ति से संबंधित.
नास्य जाया शतवाही कल्याणी तल्पमा शये |
यस्मिन राष्ट्रे निरुध्यते ब्रह्मजायाचित्त्या ||
(जिस राष्ट्र में इस ब्रह्मजाया (पवित्र नारी) को जड़ता पूर्वक प्रतिबन्ध में डाला जाता है, उस राष्ट्र में सैकड़ों कल्यानो को धारण करने वाली 'जाया' (विद्या) भी फलित होने से वंचित रह जाती है.)
अथर्ववेद के सन्दर्भ में ये बात भी जान लेनी चाहिए की वेदों में सिर्फ़ यज्ञीय कर्मकांडों पर ही नही अपितु मनुष्य के क्रियाकलापों, प्रकृति की क्रियाओं, अध्यात्म, अनुशासन आदि पर भी लिखा गया है.
यजुर्वेद के मंत्रों को भली प्रकार जानने के लिए हमें उन मंत्रो की क्रमानुसार व्याख्या करनी होगी.
यजुर्वेद अध्याय २३ मंत्र २१.
उत्सक्थ्या अव गुदं धेहि समञ्जिं चारया वृषन् | य स्त्रीणां जीवभोजन: || (हे बलशाली - दुष्टो के दमनकर्ता, जो लोग अपनी स्त्रियों को क्रीड़ा एवं व्यसन में नियोजित करके अपनी जीविका प्राप्त करते हैं, आप उनको प्रताड़ित करें तथा स्त्रियों द्वारा विद्या और बुद्धि के क्षेत्र में उत्तम सुख की स्थापना करें .)
यह श्लोक स्त्री शिक्षा पर ज़ोर भी देता है तथा इसका पक्षधर भी है.
यजुर्वेद अध्याय २३ मंत्र २२.
यकासकौ शकुन्तिकाहलगिति वञ्चति | आहन्ति गभे पसो निगल्गलिती धारका ||
(आध्वर्यु का कथन - यह जो शक्ति धारण किए प्रवाहमान जल है, शकुन्ति (पक्षी) के समान अद्यातजनित शब्द करता है. इस उत्पादक जल में यज्ञ तेज आता है. तेज धारण किया हुआ जल गल-गल ध्वनि करता है.)
यजुर्वेद अध्याय २३ मंत्र २३.
यकोसकौ शकुन्तक ऽ आहलगिति वञ्चति | विवक्षत ऽ इव ते मुखमध्वर्यो मा नस्त्वमभि भाषथा: ||
(कुमारी कहती है - हे अध्वर्यु, आपका बोलने को आतुर मुख शकुन्तक पक्षी की तरह सतत शब्द कर रहा है. आप केवल यज्ञीय सन्दर्भ में अपनी वाणी का प्रयोग करें.)
यजुर्वेद अध्याय 21 मंत्र 60
सुपस्था ऽ अद्य देवो वनस्पतिरभवदश्विभ्या छागेन सरस्वत्यै मेषेणेन्द्राय ॠषभेणाक्षस्तान मेदस्त: प्रति पचतागृभीषतावीवृधन्त पुरोडाशैरपुरश्विना सरस्वतीन्द्र: सुत्रामा सुरासोमान् ||
(यज्ञस्थल मे वनस्पतिदेव ने उपस्थित होकर छाग (औषधि) द्वारा अश्विनिकुमारो को, मेष (औषधि) द्वारा सरस्वतिदेवी को तथा ऋषभ (औषधि) द्वारा इंद्रदेव को प्रसन्न किया. संतुष्ट हुए इंद्रदेव ने अश्विनिकुमारो और देवी सरस्वती के साथ माहौषधियो का तीक्ष्णरस तथा सोम पान किया.)
अथर्ववेद के मंत्रों की व्याख्या.
अथर्ववेद कांड ४ सूक्त ४ मंत्र १
यां त्वा गन्धर्वो अखनद वरुणाय मृत भ्रजे | तां त्वा वयं खनामस्योषधिं शेपहर्षणीम् ||
(हे औषधे, वरुण (वरणिय मनुष्यों) के लिए आपको गन्धर्वो ने खोदा था. हम भी इंद्रिय-शक्ति बढ़ाने वाली औषधि आपको खोदतें हैं.)
अथर्ववेद कांड ४ सूक्त ४ मंत्र ६
अद्याग्ने अद्य सवितरद्य देवि सरस्वती | अद्यास्य ब्राह्मणस्पते धनुरिवा तानया पस: ||
(हे अग्निदेव, हे सवितादेव, हे सरस्वती, हे ब्राह्मणस्पाते. आप इस मनुष्य की इंद्रियों को बल प्रदान करके उसे धनुष के समान प्रहरक बनाएँ.)
अथर्ववेद कांड ४ सूक्त ४ मंत्र ८
अश्वस्याश्वतरस्याजस्य पेतवस्य च | अथ ऋषभस्य ये वाजास्तानस्मिन धेहि तनूवशिन ||
(हे औषधे, घोड़ा, बैल, मेढ़ा (नर-भेड़) आदि के शरीर मं जो ओजस् है, उसे मनुष्य के शरीर में स्थापित करें.)
अथर्ववेद कांड ६ सूक्त १०१ मंत्र ३
आहं तनोमि ते पासो अधि ज्यामिव धन्वनि | क्रमस्वर्श इव रोहितमनवग्लायता सदा ||
(हे पुरुष, अब हम लक्ष्य वेधन में समर्थ धनुष पर चढ़ी प्रत्यंचा के समान तुम्हारे शरीर को पुष्ट करतें हैं. तुम प्रसन्न मन ऐवं पुष्ट शरीर वाले होने के बाद. अपनी जीवानसंगिनी के सदा साथ रहो.)
अथर्ववेद कांड १४ सूक्त २ मंत्र ३८
तां पूषञ्छिवतमामेरयस्व यस्यां बीजं मनुष्या३ वपन्ति | या न ऊरु उशती विश्रयाति यसयायामुशन्त: प्रहरेंम शेप: ||
(हे पुषन् (पोषण करने वाला) आप उस कल्याणकारी उर्वारा शक्ति को प्रेरित करें. जिसमे मनुष्य बीज वपन करतें हैं. वह उल्लासित होकर अपने ऊरु (खेती योग्य भूमि) प्रदेश को विस्तरित करे. जिससे वहाँ पर बीज बोया जाए.)
अथर्वेद कांड २० सूक्त १३३ मंत्र १-४
विततौ किरणौ द्वौ तावा पिनष्टि पुरूष: | न वै कुमारी तत तथा यथा कुमारी मन्यसे ||
मातुष्टे किरणौ द्वौ निवृत: पुरुषा नृते | न वै कुमारी तत तथा यथा कुमारी मन्यसे ||
निगृह्य कर्णकौ द्वौ निरा यच्छसि मध्यमे | न वै कुमारी तत तथा यथा कुमारी मन्सये ||
उत्तनायै शयानायै तिष्ठन्ती वाव गुहसि | न वै कुमारी तत तथा यथा कुमारी मन्सये ||
(इन सभी मंत्रो को प्रवहलिका पहेलियाँ कहा जाता है. जो मनुष्य की बुद्धि (कुमारी) और माया (किरणौ) का परस्पर धन(वित) और ममता(मातुष्टे) के साथ संबंध व्यक्त करती हैं (१-२). हे मध्यमे, आप जड़ और चेतन दोनो कर्णो (छोरो) को नियोजित कर देतीं हैं, ऐसा भी नही हैं (३). ये पूरी प्रकृति सोते जागते माया के अधीन ही रहती हैं. ऐसा भी नही हैं (४).)
मनुष्यों की समानता से संबंधित.
सह्रदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि व: |
अन्यो अन्यमभि हर्यत वत्सं जात्मिवाघ्न्या ||
(हे मनुष्यों ! हम आपके लिए हृदय को प्रेमपूर्ण बनाने वाले तथा सौमनस्य बढाने वाले कर्म करते हैं. आप लोग परस्पर उसी प्रकार व्यवहार करें, जिस प्रकार गौ अपने बछड़े से स्नेह करती है.)
अनुव्रत: पितु: पुत्रो मात्रा भवतु संमना: |
जाया पत्ये मधुमति वाचं वदतु शन्तिवाम ||
(पुत्र अपने पिता के अनुकूल कर्म करने वाला हो और पता के साथ सामान विचार से रहने वाला हो. पत्नी अपने पति से मधुरता तथा सुख से युक्त वाणी बोले.)
येन देवा न वियन्ति नो च विद्विष्ते मिथ: |
तत कृन्मो ब्रह्म वो गृहे संज्ञान पुरुषेभ्य: ||
(जिसकी शक्ति से देवगण भी विपरीत विचार वाले नहीं होते और आपस में द्वेष नहीं करते है. उस सामान विचार को सम्पादित करने वाले ज्ञान को हम आपके घर के मनुष्यों के लिए प्रयुक्त करते हैं.)
स्त्री या नारी शक्ति से संबंधित.
नास्य जाया शतवाही कल्याणी तल्पमा शये |
यस्मिन राष्ट्रे निरुध्यते ब्रह्मजायाचित्त्या ||
(जिस राष्ट्र में इस ब्रह्मजाया (पवित्र नारी) को जड़ता पूर्वक प्रतिबन्ध में डाला जाता है, उस राष्ट्र में सैकड़ों कल्यानो को धारण करने वाली 'जाया' (विद्या) भी फलित होने से वंचित रह जाती है.)
अथर्ववेद के सन्दर्भ में ये बात भी जान लेनी चाहिए की वेदों में सिर्फ़ यज्ञीय कर्मकांडों पर ही नही अपितु मनुष्य के क्रियाकलापों, प्रकृति की क्रियाओं, अध्यात्म, अनुशासन आदि पर भी लिखा गया है.
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