Tuesday, July 31, 2012
Thursday, July 19, 2012
बल
समस्त जातियों को , सकल मतों को , भिन्न भिन्न संप्रदाय के दुर्बल , दुखी , पददलित , लोगों को स्वयं अपने पैरों खड़े होकर मुक्त होने के लिए वे उच्च स्वर में उद्घोष कर रहें हैं । मुक्ति अथवा स्वाधीनता , अध्यात्मिक स्वाधीनता यही उपनिषदों के मूल मंत्र हैं ।
Wednesday, July 18, 2012
* ईर्ष्या तथा अहंभाव को दूर कर दो । संगठित होकर दूसरों के लिए कार्य करना सीखो । हमारे देश में इसकी बहुत बड़ी आवश्यकता है ।
* बड़े बड़े काम बिना बड़े स्वार्थ त्याग के नहीं हो सकता ।
*यह जीवन क्षणस्थायी है, संसार के भोग विलास की सामग्रियाँ भी क्षणभंगुर है । वे ही यथार्थ में जीवित हैं, जो दूसरों के लिए जीवन धारण करतें हैं ।बाकी लोगों का जीना तो मरने ही के बराबर है ।
* यदि आवश्यकता हो, तो सार्वजनिनता के भाव की रक्षा के लिए सब कुछ छोड़ना होगा ।
* बड़े बड़े काम बिना बड़े स्वार्थ त्याग के नहीं हो सकता ।
*यह जीवन क्षणस्थायी है, संसार के भोग विलास की सामग्रियाँ भी क्षणभंगुर है । वे ही यथार्थ में जीवित हैं, जो दूसरों के लिए जीवन धारण करतें हैं ।बाकी लोगों का जीना तो मरने ही के बराबर है ।
* यदि आवश्यकता हो, तो सार्वजनिनता के भाव की रक्षा के लिए सब कुछ छोड़ना होगा ।
Tuesday, July 17, 2012
आत्मा
आत्मा के सम्बन्ध में एक सुन्दर उपमा दी गयी है । आत्मा को रथी , शरीर को रथ , बुद्धि को सारथी , मन को लगाम और इन्द्रियों को अश्व की उपमा दी गयी है । जिस रथ के घोड़े अच्छी तरह से प्रशिक्षित हैं , जिस रथ की लगाम मजबूत और सारथि के द्वारा दृढ़रूप से पकड़ी गयी है , वह रथी विष्णु के उस परम पद को पहुँच सकता है , किन्तु जिस रथ के इन्द्रियारुपी घोड़े दृढ़ भाव में संयत नहीं हैं तथा मन रूपी लगाम मजबूती से पकड़ी हुई नहीं है , वह रथी अंत में विनाश को प्राप्त करता है ।
भारत को आह्वान
भारत का पुनरोत्थान होगा , पर वह जड़ की शक्ति से नहीं , वरण आत्मा की शक्ति द्वारा । वह उत्थान विनाश की ध्वजा लेकर नहीं , वरण शांति और प्रेम की ध्वजा से । सन्यासियों के वेश से धन की शक्ति से नहीं , बल्कि भिक्षापात्र की शक्ति से सम्पादित होगा । अपने अन्तः स्थित ब्रह्म (दिव्यता ) को जागो , जो तुम्हें क्षुधा तृष्णा , शीत-उष्ण सहन करनें में समर्थ बना देगा । विलासपूर्ण भवनों में बैठे बैठे जीवन की सभी सुखसामग्री से घिरे हुए रहना और धर्म की थोड़ी सी चर्चा कर लेना अन्य देशों में भले ही शोभा दे , पर भारत को तो स्वभावतः सत्य की इससे कहीं अधिक की पहचान है । वह तो प्रकृति से ही अधिक सत्य प्रेमी है । वह कपटवेश को अपनी अंतःशक्ति से ही ताड़ जाता है । तुम लोग त्याग करो , महान बनो । कोई भी बड़ा कार्य बिना त्याग के नहीं किया जा सकता ।
Monday, July 16, 2012
भारत को आह्वान
क्या भारत मर जायेगा ? तब तो संसार से सारी आध्यात्मिकता का समूल नाश हो जायेगा , सारे सदाचारपूर्ण आदर्श जीवन का विनाश हो जायेगा , धर्मों के प्रति सारी मधुर सहानुभूति नष्ट हो जायेगी और उसके स्थान पर कामरूपी देव और विलासितारूपी देवी राज्य करेगी । धन उसका पुरोहित होगा । प्रतारणा , पाश्विक बल और प्रतिद्वंदिता , ये ही उनकी पूजा पद्धति होगी और मानवात्मा उनकी बलि सामग्री हो जायेगी । ऐसी दुर्घटना कभी हो नहीं सकती । क्रियाशक्ति की अपेक्षा सहनशक्ति कई गुना बड़ी होती है । प्रेम का बल घृणा के बल की अपेक्षा अनंत गुना अधिक है ।
Sunday, July 15, 2012
ब्राह्मण
आध्यात्मिक साधना संपन्न महात्यागी ब्राह्मण ही हमारे आदर्श हैं । इस ब्राह्मण आदर्श से मेरा क्या मतलब है ? आदर्श ब्राह्मणत्व वही है , जिसमें सांसारिकता एक दम न हो और असली ज्ञान पूर्ण मात्रा में विद्यमान हो । हिंदू जाति का यही आदर्श है ।
मूर्ति पूजा
आज कल मूर्तिपूजा को गलत बताने की प्रथा सी चल पड़ी है , और सब लोग बिना किसी आपत्ति के उसमें विश्वास भी करने लग गए हैं। मैनें भी एक समय ऐसा ही सोच था और दंड स्वरुप मुझे ऐसे व्यक्ति के चरण कमल में बैठ कर शिक्षा ग्रहण करनी पड़ी , जिन्होनें सब कुछ मूर्ति पूजा के ही द्वारा प्राप्त किया था , मेरा अभिप्राय श्री रामकृष्ण परमहंस से है । यदि मूर्ति पूजा के द्वारा श्री रामकृष्ण परमहंस जैसे व्यक्ति उत्पन्न हो सकते हैं , तब तुम क्या पसंद करोगे ? सुधारकों का धर्म या मूर्ति पूजा । यदि मूर्ति पूजा के द्वारा इस प्रकार श्री रामकृष्ण परमहंस उत्पन्न हो सकतें हैं , तो और हजारों मूर्तियों की पूजा करो । प्रभु तुम्हें सिद्धि देवें । जिस किसी भी उपाय से हो सके , इस प्रकार के महापुरुषों की सृष्टि करो ।
और इतने पर भी मूर्ति पूजा की निंदा की जाती है क्यों ? यह कोई नहीं जानता । शायद इस लिए की हजारों वर्ष पहले किसी यहूदी ने इसकी निंदा की थी । अर्थात उसने अपनी मूर्ति को छोडकर और सब की मूर्तियों की निंदा की थी । उस यहूदी ने कहा था , यदि ईश्वर का भाव किसी विशेष प्रतिक या सुन्दर प्रतिमा द्वारा प्रकट किया जाय , तो यह भयानक दोष है , एक जघन्य पाप है ; परन्तु यदि उसका अंकन एक संदूक के रूप में किया जाय , जिसके दोनों किनारों पर दो देवदूत बैठें हैं और ऊपर बादल का टुकड़ा लटक रहा है , तो वह बहुत ही पवित्र होगा । यदि ईश्वर पंडुक का रूप धारण करके आये , तो वह महापवित्र होगा ; पर यदि वह गाय का रूप लेकर आये , तो वह मूर्ति पूजकों का कुसंस्कार होगा ! उसकी निंदा करो । दुनिया का बस यही भाव है ।
और इतने पर भी मूर्ति पूजा की निंदा की जाती है क्यों ? यह कोई नहीं जानता । शायद इस लिए की हजारों वर्ष पहले किसी यहूदी ने इसकी निंदा की थी । अर्थात उसने अपनी मूर्ति को छोडकर और सब की मूर्तियों की निंदा की थी । उस यहूदी ने कहा था , यदि ईश्वर का भाव किसी विशेष प्रतिक या सुन्दर प्रतिमा द्वारा प्रकट किया जाय , तो यह भयानक दोष है , एक जघन्य पाप है ; परन्तु यदि उसका अंकन एक संदूक के रूप में किया जाय , जिसके दोनों किनारों पर दो देवदूत बैठें हैं और ऊपर बादल का टुकड़ा लटक रहा है , तो वह बहुत ही पवित्र होगा । यदि ईश्वर पंडुक का रूप धारण करके आये , तो वह महापवित्र होगा ; पर यदि वह गाय का रूप लेकर आये , तो वह मूर्ति पूजकों का कुसंस्कार होगा ! उसकी निंदा करो । दुनिया का बस यही भाव है ।
सेवा
तुम जो कुछ भी कार्य करते हो , उसे तुम अपने ही भले के लिए करते हो । भगवान किसी खंदक में नहीं गिर गएँ हैं , जो उन्हें हमारी या तुम्हारी सहायता की आवश्यकता है , की हम हस्पताल बनवाकर या इसी तरह के अन्य कार्य करके उनकी सहायता कर सकें । उन्हीं की आज्ञा से तुम कर्म कर पाते हो । इसलिए नहीं की तुम उनकी सहायता करो , बल्कि इस लिए की तुम स्वयं अपनी सहायता कर सको । क्या तुम सोचते हो की तुम अपनी सहायता से एक चिटी तक को मरने से बचा सकते हो ? ऐसा सोचना घोर ईशनिंदा है । संसार को तुम्हारी तनिक भी आवश्यकता नहीं है । इस सहायता शब्द को मन से सदा के लिए निकाल दो । तुम किसी की सहायता नहीं कर सकते । यह घोर ईशनिंदा है । तुम उनकी पूजा करते हो ।
सेवा एवं त्याग
हर एक स्त्री को , हर एक पुरुष को और सभी को ईश्वर के ही समान देखो । तुम किसी की सहायता नहीं कर सकते , तुम्हे केवल सेवा करने का अधिकार है । प्रभु के संतान की , यदि भाग्यवान हो तो , स्वयं प्रभु की ही सेवा करो । यदि ईश्वर के अनुग्रह से उसके किसी संतान की सेवा कर सकोगे , तो तुम धन्य हो जावोगे ; अपने ही को बड़ा मत समझो । तुम धन्य हो , क्योंकि सेवा करने का तुमको अधिकार मिला । केवल ईश्वर पूजा के भाव से सेवा करो । दरिद्र व्यक्तियों में हमको भगवान को देखना चाहिए , अपनी ही मुक्ति के लिए उनके निकट जाकर हमें उनकी पूजा करनी चाहिए । अनेक दुखी और कंगाल प्राणी हमारी मुक्ति के माध्यम हैं , ताकि हम रोगी , पागल , कोढ़ी , पापी आदि स्वरूपों में विचरते हुए प्रभु की सेवा करके अपना उद्धार करें ।
Saturday, July 14, 2012
शिव का सामीप्य
जो शिव की साधना करना चाहता है , उसे उनकी संतान की , विश्व के प्राणी मात्र की पहले सेवा करनी चाहिए । शास्त्रों में कहा भी गया है की जो भगवान के दासों की सेवा करता है , वही भगवान का सर्वश्रेष्ट दास है । यह बात सर्वदा ध्यान में रखनी चाहिए । निस्वर्थापरता ही धर्म की कसौटी है । जिसमें जितनी ही अधिक निस्वर्थापरता है वह उतना ही अध्यात्मिक है तथा उतना ही शिव के समीप । चाहें वह पंडित हो या मुर्ख , शिव का सामीप्य दूसरों की अपेक्षा उसे ही प्राप्त है । परन्तु इसके विपरीत यदि कोई मनुष्य स्वार्थी है , तो चाहें उसने संसार के सब मंदिरों के ही दर्शन क्यों न किये हों , सारे तीर्थ क्यों न गया हो और रंग भभूत रमाकर अपनी शक्ल चीते जैसी क्यों न बना ली हो , शिव से वह बहुत दूर है ।
दाता
ऊँचे आसान पर खड़े होकर और अपने हाथ में दो पैसे लेकर यह मत कहो " ऐ भिखारी , ले , यह मैं तुझे देता हूँ " । परन्तु तुम स्वयं इस बात के लिए कृतज्ञ होओ की तुम्हें वह निर्धन व्यक्ति मिला , जिसे दान देकर तुमने स्वयं अपना उपकार किया । धन्य पाने वाला नहीं होता , देने वाला होता है ।
दाता
संसार में सर्वदा दाता का आसन ग्रहण करा । सर्वस्य दे दो , पर बदले में कुछ न चाहो । प्रेम दो , सहायता दो सेवा दो , इनमें से जो तुम्हारे पास देने के लिए है , दे डालो । उनके बदले में कुछ लेने की इच्छा कभी न करो । किसी तरह की कोई शर्त मत रखो । ऐसा करने पर तुम्हारे लिए भी कोई किसी तरह की शर्त नहीं रखेगा । अपनी हार्दिक दानशीलता के कारण ही हम देते चलें ।ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार ईश्वर हमें देता है ।
आत्म संयम
यदि आत्मा के जीवन में मुझे आनंद नहीं मिलता , तो क्या मैं इन्द्रियों के जीवन में आनंद पाऊंगा ? यदि मुझे अमृत नहीं मिलता , तो क्या मैं गड्ढे के पानी से प्यास बुझाऊंगा ? सुख आदमी के सामने आता है , तो दुःख का मुकुट पहन कर । जो उसका स्वागत करता है , उसे दुःख का भी स्वागत करना चाहिए ।
Friday, July 13, 2012
संसार
हमें यह ध्यान रखना चाहिए की हम इस संसार के ऋणी हैं , संसार हमारा ऋणी नहीं है । यह तो हमारा सौभाग्य है की हमें संसार में कुछ कार्य करने का अवसर मिलता है । संसार की सहायता करने से हम वास्तव में स्वयं अपना ही कल्याण करतें हैं ।
आत्म संयम
यदि कोई तुम्हारे समीप अन्य किसी साथी की निंदा करना चाहें , तो तुम उस ओर बिलकुल ध्यान न दो । इन बातों को सुनना भी महापाप है , उससे भविष्य में विवाद का सूत्रपात होगा । दूसरों के दोषों को सर्वदा सहन करना , लाख अपराध होने पर भी उसे क्षमा करना ।
आत्म संयम
उदास रहना कदापि धर्म नहीं है , चाहें वह और कुछ भले ही हो । प्रफुल्ल चित्त तथा हंसमुख रहने से तुम ईश्वर के अधिक समीप पहुँच जाओगे ।
आत्म संयम
यदि तुम्हारे पास कोई व्यर्थ विवाद के लिए आये , तो नम्रतापूर्वक पीछे हट जाओ । तुम्हे सब संप्रदाय के लोगों से अपनी सहानुभूति प्रकट करनी चाहिए । जब इन मुख्य गुणों का तुममें विकास होगा तब केवल तुम्हीं महान शक्ति से काम करनें में समर्थ होगे ।
आत्म संयम
पीठ पीछे किसी की निंदा करना पाप है । इससे पूरी तरह बचकर रहना चाहिए । मन में कई बातें आती है , परन्तु उन्हें प्रकट करने से राई का पहाड़ बन जाता है । यदि क्षमा कर दो और भूल जाओ , तब उन बातों का अंत हो जाता है ।
Thursday, July 12, 2012
'ब्रह्म' और 'मानव-शरीर'
'ब्रह्म' की रचना और 'मानव-शरीर' की रचना में गहरा साम्य है। यहाँ इसी तथ्य का उद्घाटन करने का प्रयत्न किया गया है। पंचतत्वों-
- पृथ्वी,
- जल,
- अग्नि,
- वायु और
- आकाश से 'मानव-शरीर' और 'ब्रह्म' की रचना का साम्य दर्शाया गया
है।
'द्युलोक' (आकाश) ब्रह्म का मस्तक है। यहीं आत्मा निवास करती है। 'आदित्य' (अग्नि) को ब्रह्म के नेत्र कहा गया है। 'वायु' प्राण-रूप में शरीर में स्थित है। 'जल' का स्थान उदर या मूत्राशय में है। 'पृथ्वी' ब्रह्म के चरण है। इस प्रकार 'ब्रह्म' अपने सम्पूर्ण विराट स्वरूप में इस मानव-शरीर में भी विद्यमान है। इस मर्म को समझकर ही साधक को अन्तर्मुखी होकर 'ब्रह्म' की उपासना, अपने शरीर में ही करनी चाहिए। 'ब्रह्म' इस शरीर से अलग नहीं है। यह 'आत्मा' ही ब्रह्म का अंश है।
बल
हमेशा याद रखो आँखें दो होती है और कान भी दो , परन्तु मुख एक ही होता है । सभी बड़े बड़े कार्य प्रबल विघ्नों के मध्य ही हुए होतें हैं । हे वीर , अपने पौरुष का स्मरण करो , कामकांचनासक्त दयनीय लोगों की उपेक्षा ही उचित है ।
बल
इस देश के लिए वीरों की आवश्यकता है । वीर बनो । चट्टानों की तरह दृढ़ रहो । सत्य की हमेशा जय होती है । भारत को नव विद्युत शक्ति की आवश्यकता है , जो जातीय धमनी में नवीन स्फूर्ति उत्पन्न कर सके । साहसी बनो । मनुष्य सिर्फ एक बार ही मर सकता है । मेरे शिष्य कभी भी किसी भी प्रकार से कायर न बनें ।मैं कायरता को घृणा की दृष्टि से देखता हूँ । अति गंभीर बुद्धि धारण करो । बालबुद्धि जीव कौन क्या कह रहा है , उस पर तनिक भी ध्यान न दो । उदासीनता । उदासीनता । उदासीनता ।
Wednesday, July 11, 2012
बल
- उपनिषदों का प्रत्येक पृष्ठ मुझे शक्ति का सन्देश देता है । यह विषय विशेष रूप से स्मरण रखने योग्य है , समस्त जीवन में मैंने यही महाशिक्षा प्राप्त की है " उपनिषद " कहतें हैं हे मानव , तेजस्वी बनो , वीर्यवान बनो , दुर्बलता को त्यागो ।
- जो हमारी जाती को शक्तिहीन कर सकती है , ऐसी दुर्बलताओं का प्रवेश हममें विगत एक हजार वर्ष से ही हुआ है । ऐसा प्रतीत होता है , मानों विगत एक हजार वर्ष से हमारे जातीय जीवन का एकमात्र लक्ष्य था की किस प्रकार हम अपने को दुर्बल से दुर्बलतर बना सकेंगें । अंत में हम वास्तव में हर एक के पैर के पास रेंगनेवाले ऐसे केंचुओं के समान हो गयें हैं की इस समय जो चाहें वही हमको कुचल सकता है ।
- हे बन्धुगण , तुम्हारी और मेरी नसों में एक ही रक्त का प्रवाह हो रहा है , तुम्हारा जीवन मरण मेरा भी जीवन मरण है । मैं तुमसे कहता हूँ की हमको शक्ति , केवल शक्ति ही चाहिए । उपनिषदों में ऐसी प्रचुर शक्ति विद्यमान है की वे समस्त संसार को तेजस्वी बना सकतें हैं । उनके द्वारा समस्त संसार पुनर्जीवित , सशक्त और विर्यसंपन्न हो सकता है ।
विवेक सूत्र
प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रम्ह है ।
बाह्य एवं अन्तः प्रकृति को वशीभूत करके आत्मा के इस ब्रम्हभाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है ।कर्म, उपासना , मनःसंयम अथवा ज्ञान , इनमें से एक , एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा लेकर अपना ब्रम्हभाव व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ ।
यही धर्म का सर्वस्य है । मत , अनुष्ठान पद्धति , शाश्त्र, मंदिर अथवा अन्य बाह्य क्रियालाप तो उसके गौण ब्योरे मात्र है ।
विवेकानंद
भुक्तिमुक्ति कृपाकटाक्ष प्रेक्षणमघदल विदलन दक्षम !
बाल चंद्रधर मिन्दु वन्द्य मिह नौमी गुरु विवेकानान्दम !!
बाल चंद्रधर मिन्दु वन्द्य मिह नौमी गुरु विवेकानान्दम !!
जिनकी कृपा दृष्टि से भोग और मोक्ष दोनों प्राप्त होतें हैं , जो पाप समूह का विनाश करनें में निपुण हैं , जो मस्तक पर चन्द्रकला धारण करने वाले शिव स्वरुप हैं एवं इंदु (कवि ) के वन्दनीय हैं , उन गुरु विवेकानंद को मैं प्रणाम करता हूँ !
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