जो शिव की साधना करना चाहता है , उसे उनकी संतान की , विश्व के प्राणी मात्र की पहले सेवा करनी चाहिए । शास्त्रों में कहा भी गया है की जो भगवान के दासों की सेवा करता है , वही भगवान का सर्वश्रेष्ट दास है । यह बात सर्वदा ध्यान में रखनी चाहिए । निस्वर्थापरता ही धर्म की कसौटी है । जिसमें जितनी ही अधिक निस्वर्थापरता है वह उतना ही अध्यात्मिक है तथा उतना ही शिव के समीप । चाहें वह पंडित हो या मुर्ख , शिव का सामीप्य दूसरों की अपेक्षा उसे ही प्राप्त है । परन्तु इसके विपरीत यदि कोई मनुष्य स्वार्थी है , तो चाहें उसने संसार के सब मंदिरों के ही दर्शन क्यों न किये हों , सारे तीर्थ क्यों न गया हो और रंग भभूत रमाकर अपनी शक्ल चीते जैसी क्यों न बना ली हो , शिव से वह बहुत दूर है ।
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