हमारे प्राचीन भारतीय आर्यों या हिंदुओं के जीवन
की चार आश्रम में से अंतिम आश्रम सन्यास (सांसारिक प्रपंचों के त्याग की
वृत्ति , दुनिया के जंजाल से अलग होने की अवस्था या वैराग्य ) है । जो
पुत्र आदि के सयाने हो जाने पर ग्रहण की जाती थी । इसमें मनुष्य गृहस्थी
छोड़कर जंगल या एकांत स्थान में ब्रह्मचिंतन या परलोकसाधन में प्रवृत्त
रहते थे और भिक्षा द्वारा निर्वाह करते थे । इसमें किसी आचार्य से दीक्षा
लेकर
सिर मुँड़ाते और दंड ग्रहण करते थे ।
संन्यास दो प्रकार का कहा गया है—एक सक्रम अर्थात् जो ब्रह्मचर्य,
गार्हस्थ्य और वानप्रस्थ आश्रम के उपरांत ग्रहण किया जाय; दूसरा अक्रम जो
बीच में ही वैराग्य उत्पन्न होनेपर धारण किया जाय । बहुत दिनों तक
'संन्यास' कलिवर्ज्य माना जाता था; पर शंकराचार्य ने बौद्ध भिक्षुओं ओर जैन
यतियों को अपने अपने धर्म का प्रचार बढ़ाते देख कलिकाल में फिर संन्यास
चलाया और गिरि, पुरी, भारती आदि दस प्रकार के संन्यासियों की प्रतिष्ठा की
जो दशनामी कहे जाते हैं ।
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