आप का परिचय ? यह प्रश्न पूछने पर प्रत्येक व्यक्ति अपना शारीरिक परिचय देगा और उत्तर में अपना नाम, लिंग, गुण, व्यवसाय बतलाता है जो की उसके मनुष्य शरीर रूप का परिचायक है एवं मूलतः जिसे वह अपने शरीर को संबोधित करता है ।
हमारे आत्मा तथा शरीर का सम्बन्ध उदहारण स्वरुप ड्राईवर और मोटर के समान है । जैसे मोटर में बैठकर ड्राईवर उसे चलाता है और अलग अस्तित्व रखता है, वैसे आत्मा भी शरीर में रहकर उसका संचालन करती है और शरीर से अलग अस्तित्व रखती है । जब आत्मा और शरीर का सम्बन्ध हो तब ही आत्मा जीव-आत्मा कहलाती है, तब ही मनुष्य शब्द कहने में आता है । आत्मा की देह की इन्द्रियों द्वारा कर्म करती है और उन्हीं कर्मो का फल सुख या दु:ख रुप में देह की इन्द्रियों द्वारा ही भोगती है इसलिए तो कहावत है कि आत्मा अपना ही मित्र है और अपना ही शत्रु है । आत्मा ही जीवात्मा के रुप में कर्मो के लेप - विक्षेप में आती है तब ही महात्मा, पुण्यात्मा, की संज्ञा का प्रयोग आत्मा के लिए होता है, न कि शरीर के लिए. शरीर का महत्व वा मूल्य तब तक है जब तक उसमें आत्मा का निवास है । जिस प्रकार बीज का महत्व ही तब है जब उसको धरती, जल, वायु या तेज दिया जाए, इसी प्रकार आत्मा का भी महत्व तभी है अथवा वह कर्म तब कर सकती है जब उसे शरीर प्राप्त है । तो आत्मा और शरीर इस संसार रुपी कर्मक्षेत्र में एक दुसरें के लिए परम आवश्यक हैं, लेकिन अनुभव करने वाली आत्मा है और शरीर उसका साधन या माध्यम है ।
इससे स्पष्ट है कि मैं कहने वाली आत्मा है, न कि शरीर । मैं आत्मा साधक हूँ और शरीर मेरा एक साधन है । शरीर और आत्मा के अन्तर का मूल भेद मैं और मेरा - इन दो सर्वनामों के प्रयोग से स्पष्ट किया जा सकता है, तो आप कौन है ? का सही उत्तर यही है कि मैं आत्मा हूँ और यह मेरा शरीर है । मैं शब्द आत्मा की ओर इंगित करता है और मेरा शब्द आत्मा के साधन शरीर की ओर संकेत करता है । इसी प्रकार शरीर के विभिनन अंगो के लिए भी मेरा शब्द का प्रयोग किया जाता है, न कि मैं शब्द का , जैसे कि मेरा, मुख, मेरे हाथ, मेरी आँखे आदि, समूचे शरीर के लिए - मेरा शरीर । जब हम कहते है कि हमे शान्ति चाहिए, तो शान्ति की इच्छा रखने वाला मैं कौन हूँ ? अगर केवल शरीर को शान्ति चाहिए तो किसी की मृत्यु के बाद जब शरीर शान्त हो जाता है तब फिर आत्मा की शान्ति की कामना नहीं की जानी चाहिए । किसी की मृत्यु हो जाने पर अगर कोई रोता है तो उसे इसलिए रोका जाता है कि कहीं रोने से आत्मा अशान्त न हो जाए । परमात्मा से प्रार्थना में भी यही कहते है कि - हे प्रभु ! इनकी आत्मा को शान्ति देना मृतक शरीर के आगे दीपक जगाकर रखते हैं ताकि आत्मा को सही दिशा प्राप्त हो ।
हमारे आत्मा तथा शरीर का सम्बन्ध उदहारण स्वरुप ड्राईवर और मोटर के समान है । जैसे मोटर में बैठकर ड्राईवर उसे चलाता है और अलग अस्तित्व रखता है, वैसे आत्मा भी शरीर में रहकर उसका संचालन करती है और शरीर से अलग अस्तित्व रखती है । जब आत्मा और शरीर का सम्बन्ध हो तब ही आत्मा जीव-आत्मा कहलाती है, तब ही मनुष्य शब्द कहने में आता है । आत्मा की देह की इन्द्रियों द्वारा कर्म करती है और उन्हीं कर्मो का फल सुख या दु:ख रुप में देह की इन्द्रियों द्वारा ही भोगती है इसलिए तो कहावत है कि आत्मा अपना ही मित्र है और अपना ही शत्रु है । आत्मा ही जीवात्मा के रुप में कर्मो के लेप - विक्षेप में आती है तब ही महात्मा, पुण्यात्मा, की संज्ञा का प्रयोग आत्मा के लिए होता है, न कि शरीर के लिए. शरीर का महत्व वा मूल्य तब तक है जब तक उसमें आत्मा का निवास है । जिस प्रकार बीज का महत्व ही तब है जब उसको धरती, जल, वायु या तेज दिया जाए, इसी प्रकार आत्मा का भी महत्व तभी है अथवा वह कर्म तब कर सकती है जब उसे शरीर प्राप्त है । तो आत्मा और शरीर इस संसार रुपी कर्मक्षेत्र में एक दुसरें के लिए परम आवश्यक हैं, लेकिन अनुभव करने वाली आत्मा है और शरीर उसका साधन या माध्यम है ।
इससे स्पष्ट है कि मैं कहने वाली आत्मा है, न कि शरीर । मैं आत्मा साधक हूँ और शरीर मेरा एक साधन है । शरीर और आत्मा के अन्तर का मूल भेद मैं और मेरा - इन दो सर्वनामों के प्रयोग से स्पष्ट किया जा सकता है, तो आप कौन है ? का सही उत्तर यही है कि मैं आत्मा हूँ और यह मेरा शरीर है । मैं शब्द आत्मा की ओर इंगित करता है और मेरा शब्द आत्मा के साधन शरीर की ओर संकेत करता है । इसी प्रकार शरीर के विभिनन अंगो के लिए भी मेरा शब्द का प्रयोग किया जाता है, न कि मैं शब्द का , जैसे कि मेरा, मुख, मेरे हाथ, मेरी आँखे आदि, समूचे शरीर के लिए - मेरा शरीर । जब हम कहते है कि हमे शान्ति चाहिए, तो शान्ति की इच्छा रखने वाला मैं कौन हूँ ? अगर केवल शरीर को शान्ति चाहिए तो किसी की मृत्यु के बाद जब शरीर शान्त हो जाता है तब फिर आत्मा की शान्ति की कामना नहीं की जानी चाहिए । किसी की मृत्यु हो जाने पर अगर कोई रोता है तो उसे इसलिए रोका जाता है कि कहीं रोने से आत्मा अशान्त न हो जाए । परमात्मा से प्रार्थना में भी यही कहते है कि - हे प्रभु ! इनकी आत्मा को शान्ति देना मृतक शरीर के आगे दीपक जगाकर रखते हैं ताकि आत्मा को सही दिशा प्राप्त हो ।
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