मूर्ति
रूपी पत्थर, मिट्टी, धातु या चित्र इत्यादि की प्रतिमा को माध्यस्थ बनाकर
हम सर्वव्यापी अनन्त शक्तियों और गुणों से सम्पन्न परमात्मा को अपने सम्मुख
उपस्थित देखते हैं । निराकार ब्रह्म का मानस चित्र निर्माण करना कष्टसाध्य
है । बड़े योगी, विचारक, तत्ववेत्ता सम्भव है यह कठिन कार्य कर
दिखायें,किन्तु साधारण जन के जिए तो वह नितांत असम्भव सा है । भावुक
भक्तों, विशेषतः नारी उपासको के लिए किसी प्रकार की मूर्ति का आधार रहने से
उपासना में बड़ी सहायता मिलती है । मानस चिन्तन और एकताग्रता की सुविधा को
ध्यान में रखते हुए प्रतीक रूप में मूर्ति-पूजा की योजना बनी है । साधक
अपनी श्रद्धा के अनुसार भगवान की कोई भी मूर्ति चुन लेता है और साधना
अन्तःचेतना ऐसा अनुभव करती है मानो साक्षात् भगवान से हमारा मिलन हो रहा है
।
मनीषियों का यह कथन सत्य हे कि इस प्रकार की मूर्ति-पूजा में भावना
प्रधान और प्रतिमा गौण है, तो भी प्रतिमा को ही यह श्रेय देना पड़ेगा कि वह
भगवान की भावनाओं का उदे्रक और संचार विशेष रूप से हमारे अन्तःकरण में
करती है । यों कोई चाहे, तो चाहे जब जहाँ भगवान को स्मरण कर सकता है, पर
मन्दिर में जाकर प्रभु-प्रतिमा के सम्मुख अनायास ही जो आनंद प्राप्त होता
है, वह बिना मन्दिर में जाये, चाहे, जब कठिनता से ही प्राप्त होगा ।
गंगा-तट पर बैठकर ईश्वरीय शक्तियों का जो चमत्कार मन में उत्पन्न होता है,
वह अन्यत्र मुश्किल से ही हो सकता है ।
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