वेदों,
उपनिषदों तथा दर्शनों में सृष्टि का प्रारम्भ 'शब्द ब्रह्म' से माना जाता
रहा है। उस ब्रह्म का न कोई आकार है और न कोई रूप। उसी 'शब्द ब्रह्म' का
प्रतीक चिह्न साकार रूप में 'शिवलिंग' है। यह शिव अव्यक्त भी है और अनेक
रूपों में प्रकट भी होता है। भाव यही है कि शिव अव्यक्त लिंग (बीज) के रूप
में इस सृष्टि के पूर्व में स्थित हैं। वही अव्यक्त लिंग पुन: व्यक्त लिंग
के रूप में प्रकट होता है। जिस प्रकार ब्रह्म को पूरी तरह न समझ पाने के
कारण 'नेति-नेति' कहा जाता है, उसी प्रकार यह शिव व्यक्त भी है और अव्यक्त
भी। वस्तुत: अज्ञानी और अशिक्षित व्यक्ति को अव्यक्त ब्रह्म (निर्गुण) की
शिक्षा देना जब दुष्कर जान पड़ता है, तब व्यक्त मूर्ति की कल्पना की जाती
है। शिवलिंग वही व्यक्त मूर्ति है। यह शिव का परिचय चिह्न है। शिव के
'अर्द्धनारीश्वर' स्वरूप से जिस मैथुनी-सृष्टि का जन्म माना जा रहा है, यदि
उसे ही जनसाधार
ण को समझाने के लिए लिंग और
योनि के इस प्रतीक चिह्न को सृष्टि के प्रारम्भ में प्रचारित किया गया हो
तो क्या यह अनुपयुक्त और अश्लील कहलाएगा। जो लोग इस प्रतीक चिह्न में मात्र
भौतिकता को तलाशते हैं, उन्हें इस पर विचार करना चाहिए।'लिंग पुराण' में
लिंग का अर्थ ओंकार (ॐ) बताया गया है। इस पुराण में शिव के अट्ठाईस अवतारों
का वर्णन है। उसी प्रसंग में अंधक, जलंधर, त्रिपुरासुर आदि राक्षसों की
कथाओं का भी उल्लेख है। भारतीय मनीषियों ने भगवान के तीन रूपों- 'व्यक्त',
'अव्यक्त' और 'व्यक्ताव्यक्त' का जगह-जगह उल्लेख किया है। 'लिंग पुराण' ने
इसी भाव को शिव के तीन स्वरूपों में व्यक्त किया है
एकेनैव हृतं विश्वं व्याप्त त्वेवं शिवेन तु।
अलिंग चैव लिंगं च लिंगालिंगानि मूर्तय:॥ (लिंग पुराण 1/2/7)
अर्थात् शिव के तीन रूपों में से एक के द्वारा सृष्टि (विश्व) का संहार
हुआ और उस शिव के द्वारा ही यह व्याप्त है। उस शिव की अलिंग, लिंग और
लिगांलिंग तीन मूर्तियां हैं।
'लिंग पुराण' में सृष्टि की उत्पत्ति पंच
भूतों (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी) द्वारा बताई गई है। प्रत्येक
तत्त्व का एक विशेष गुण होता है, जिसे 'तन्मात्र' कहा जाता है। भारतीय
मनीषियों के अनुसार, सृष्टि सृजन का विचार जब ब्रह्म के मन में आया तो
उन्होंने अविद्या अथवा अहंकार को जन्म दिया। यह अहंकार सृष्टि से पूर्व का
गहन अन्धकार माना जा सकता है इस अहंकार से पांच सूक्ष्म तत्त्व- शब्द,
स्पर्श, रूप, रस और गंध उत्पन्न हुए। यही तन्मात्र कहलाए। इनके पांच स्थूल
तत्त्व- आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी प्रकट हुए। भारतीय सिद्धान्त के
अनुसार तत्त्वों के इसी विकास क्रम से सृष्टि का आविर्भाव होता है। यह
सिद्धान्त हज़ारों वर्षों से विद्वानों को मान्य है।
एकेनैव हृतं विश्वं व्याप्त त्वेवं शिवेन तु।
अलिंग चैव लिंगं च लिंगालिंगानि मूर्तय:॥ (लिंग पुराण 1/2/7)
अर्थात् शिव के तीन रूपों में से एक के द्वारा सृष्टि (विश्व) का संहार हुआ और उस शिव के द्वारा ही यह व्याप्त है। उस शिव की अलिंग, लिंग और लिगांलिंग तीन मूर्तियां हैं।
'लिंग पुराण' में सृष्टि की उत्पत्ति पंच भूतों (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी) द्वारा बताई गई है। प्रत्येक तत्त्व का एक विशेष गुण होता है, जिसे 'तन्मात्र' कहा जाता है। भारतीय मनीषियों के अनुसार, सृष्टि सृजन का विचार जब ब्रह्म के मन में आया तो उन्होंने अविद्या अथवा अहंकार को जन्म दिया। यह अहंकार सृष्टि से पूर्व का गहन अन्धकार माना जा सकता है इस अहंकार से पांच सूक्ष्म तत्त्व- शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध उत्पन्न हुए। यही तन्मात्र कहलाए। इनके पांच स्थूल तत्त्व- आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी प्रकट हुए। भारतीय सिद्धान्त के अनुसार तत्त्वों के इसी विकास क्रम से सृष्टि का आविर्भाव होता है। यह सिद्धान्त हज़ारों वर्षों से विद्वानों को मान्य है।
No comments:
Post a Comment