सनातन धर्मी जीवन-दर्शन कर्म का त्रिविध विभाजन
करता है-प्रारब्ध, संचित और क्रियमाण। प्रारब्ध का भोग करना पड़ता है,
संचित और क्रियमाण का भोग नियत रूप में नहीं करना पड़ता। आदमी चाहे तो अपने
कठोर संकल्प के द्वारा ऐसा अभ्यास कर सकता है कि संचित और क्रियमाण कर्म
ही प्रारब्ध का भोग कराते हुए भी जीवन क्रम को संचित की अपेक्षा से मुक्त
कर लेता है और इसलिए वह पूर्वनियत फल की धारा को मोड़ भी देता है। इस अर्थ
में वह प्रारब्ध से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। क्रियमाण कर्म यदि ठीक तरह
अनुवर्तित किया गया तो वह न केवल प्रारब्ध को भोगने के लिए भीतर से शक्ति
और विश्वास देता है, बल्कि प्रारब्ध के भोग की अवधि को भी इस माने में कम
कर सकता है कि कालावधि का अनुभव ही कम योग पूर्वक क्रियमाण कर्म के द्वारा
संकुचित या विस्तृत किया जा सकता है। हिन्दू जीवन- दर्शन काल की किसी
निरपेक्ष इकाई को नहीं स्वीकार करता। प्रत्येक व्यक्ति का स्वकर्म और
स्वधर्म उसकी अपनी निजी क्षमता और परिस्थिति से निरूपित होता है। उसी कर्म
को वह जब इस प्रकार करता है कि अपने लिए नहीं, बल्कि सर्वात्मा के लिए है
तो वह सिध्दि प्राप्त कर लेता है। कोई भी कर्म अपने आप में छोटा-बड़ा नहीं,
उसके अनुष्ठान का संकल्प और उस अनुष्ठान के पीछे निहित भावना से ही वह
छोटा या बड़ा होता है।
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