यदि मानव द्वारा धर्म के मर्म को जाना एवं समझा
जाये तो वह निश्चित रूप से उदार ह्रदय का स्वामी होता है। धर्म एक अनुपम
अमृत कुण्ड है। जिसमें एक ही बार पूरे मन से डुबकी लगाने से सारी
संकीर्णताएं एवं मलीनताएं सदा-सदा के लिये धुल जाती हैं। दुनिया भर में आज
जितनी भी साधनाएं प्रचलित हैं उनका एक और सिर्फ एक मात्र उद्देश्य इंसान को
धार्मिक बनाना है। किन्तु धार्मिक होने का वह अर्थ बिल्कुल भी नहीं है जो
आजकल
प्रचलित है। धर्म की जो परिभाषा दी
जाती है,वह उचित नहीं है । इससे तो धर्म सीमित ही हुआ है। वास्तविकता यह है
कि धर्म एक और सिर्फ एक ही होता है। कई सारे धर्म या अलग-अलग धर्म हो ही
नहीं सकते। जिस तरह समय एक है, रोशनी एक है ,प्रेम एक है वैसे ही धर्म भी
एक ही है। अलग प्रतीक, अलग रिवाज, अलग मान्यताएं तो धर्म भी अलग-अलग होगा
ऐसा सोचना यही सिद्ध करता है कि मनुष्य जाति अभी अपने बचपन की अवस्था में
है। पहली बात तो यह कि धर्म कभी बनाया नहीं जाता वह तो धरती पर इंसानों के
जन्म से पूर्व से ही है और सदैव रहेगा। धर्म के नाम पर जिन नियम कायदों को
इंसानों ने बनाया है उससे तो धर्म की हानी ही हुई है। इतिहास इस बात का
गवाह है कि धर्म के नाम पर ही सबसे ज्यादा युद्ध, हिंसा, और पाप-अत्याचार
हुए हैं। जिस धर्म की नींव दुनियां में प्रेम और भाईचारा बढ़ाने के लिये
हुई थी उसके नाम पर दुनिया में क्या-क्या खैल खेले जा रहे है यह किसी से
छुपा नहीं है। अत: जो भी अपने को धार्मिक कहने की हिम्मत रखता हो उसे यह
जरूर सोचना चाहिये कि क्या वो उसका हकदार भी है।
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