भगवान
शिव की भारत में पूजा शिव लिंग के रूप में भी की जाती है। प्राचीन काल में
अन्य धर्मों में भी इस आकार वाले प्रतीकों की पूजा के कुछ प्रमाण मिलते
हैं।
शिव को लिंगाकार मानने के पीछे क्या रहस्य है? इस आकार की पूजा
शिव रूप मान कर क्यों करते हैं? बहुत सारे लोग अज्ञान के कारण या 'लिंग' के
सीमित अर्थ की जानकारी के कारण इसके बारे में अश्लील कल्पना करते हैं।
वास्तव में 'लिंग' शब्द के कई अर्थ हैं। एक तो व्याकरण में 'लिंग' शब्द का
प्रयोग 'स्त्री वर्ग' या 'पुरुष वर्ग' के विभाजन के लिए होता है। संसार में
सभी जीव या तो पुर्लिंग हैं या स्त्रीलिंग या नपुंसक लिंग।
शिव पिता
भी हैं और माता भी हैं। मनुष्य की समझ में कोई ऐसा शरीर नहीं हो सकता।
इसलिए शिव स्त्रीलिंग-पुर्लिंग से भिन्न तथा अशरीरी यानी केवल एक ज्योति
बिंदु हैं। लेकिन हम उस ज्योति को देखें कैसे? बिना प्रतीक के पूजें कैसे?
तो उसके प्रतीक के रूप में ज्योतिर्लिंग की कल्पना की गई। कई लोग कहते हैं
कि 'लिंग' शब्द में 'लि' का अर्थ है अव्यक्त वस्तु और 'गम' का अर्थ है उसे
जतलाने वाले चिन्ह। शिव अव्यक्त ज्योति बिंदु हैं और लिंग उनका अव्यक्त चिन्ह है।
इसके अतिरिक्त 'लिंग' शब्द का 'लक्षण' के अर्थ में भी प्रयोग होता है।
न्याय दर्शन में कहा गया है कि कामना और प्रयत्न 'आत्मा' के लिंग अर्थात
लक्षण या चिन्ह हैं। इसी प्रकार वैशेषिक दर्शन में कहा गया है कि 'पीछे,
पहले, एक साथ, देर से और झटपट आदि व्यवहार 'काल के लिंग' अर्थात लक्षण या
चिन्ह हैं। ब्रह्म सूत्र में भी 'लिंग' शब्द इसी अर्थ में प्रयोग हुआ है।
स्पष्ट है कि 'शिव लिंग' अथवा 'ज्योतिर्लिंग का भावार्थ यह है कि परमात्मा
ज्योतिस्वरूप है और 'शिवलिंग' उसका स्थूल चिन्ह है। भारत के विभिन्न
स्थानों पर बारह ज्योतिर्लिंग मंदिर हैं, जैसे वाराणसी में काशी विश्वनाथ,
उज्जैन में महाकालेश्वर, आंध्र प्रदेश में मल्लिकार्जुन आदि। शिव तो ब्रह्म
तत्व में निवास करते हैं, जैसे कि हम मनुष्य आकाश (ब्रह्मांड) में निवास
करते हैं। जैसे आकाश की कोई प्रतिमा नहीं बनाई जा सकती, परंतु मनुष्यों की
बनाई जा सकती है, वैसे ही ब्रह्मा तत्व की कोई मूर्ति नहीं बनाई जा सकती,
लेकिन ज्योतिर्लिंग की प्रतिमा बनाई जाती है। शिव अरूप नहीं हैं, बल्कि वे
तो अत्यंत सुंदर और मोहिनी ज्योतिर्लिंग रूप वाले हैं।
पुराणों में शिव
के रूप को अंगुष्ठाकार और दीपक की लौ के समान कहा गया है। इस बारे में
'यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे' के सूत्र की ऐसी व्याख्या मिलती है कि जैसे
पिण्ड में आत्मा सर्वव्यापक नहीं है बल्कि भृकुटि में निवास करती है, वैसे
ही शिव भी तीनों लोकों में व्याप्त नहीं हैं बल्कि ब्रह्मलोक में निवास
करते हैं। उन्हें यत्र-तत्र-सर्वत्र मानना और अरूप अर्थात दिव्य एवं
अविनाशी रूप से रहित मानना भूल करना है। शिव कल्याणकारी पिता हैं। पिता कभी
घर में अथवा बच्चों में व्याप्त नहीं होता। शिव को सर्वव्यापक मानना, अरूप
मानना अथवा आत्मा को शिव मानना तो परमात्मा को न मानने अथवा परमात्मा को
पिता न मानने जैसा है।
उनके सच्चे रूप को जान कर मनुष्य शक्ति और शांति
एक साथ प्राप्त कर सकता है। शिव के सच्चे स्वरूप को जान कर हमें उनकी
सप्रेम स्मृति में रहना चाहिए। परम पिता शिव की स्नेहमय स्मृति से ही
मनुष्य शिव लोक पहुंचता है। यही अमरनाथ, सोमनाथ अथवा रामेश्वरम की सच्ची
यात्रा है। मन, वचन और कर्म से पवित्र बनने तथा ज्योतिस्वरूप परमात्मा के
पिता रूप की स्मृति में रहने से मनुष्य सदा-शिव का अनुभव कर लेता है और
आनंदित होता है।
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