Wednesday, October 3, 2012

जीवन मंत्र


जीवन मंत्र
हमारे इस संसार में बहुत तरह के लोग होते हैं, हमें उन्हें वैसे ही स्वीकार करना चाहिए। ऐसे भी लोग हैं जिनमें बहुत प्रतिरोध है, कोई बात नहीं, उन्हें उनकी खुद की रफ़्तार से चलने दो। देखिये इस धरती पर खरगोश भी हैं, हिरन भी हैं और घोंघे भी हैं आप एक घोंघे से खरगोश के जैसे भागने की उम्मीद नहीं कर सकते, हैं न । अगर कोई घोंघे की रफ़्तार से चल रहा है जबकि बाकी सब हिरन के जैसे दौड़ रहे हैं तो उसे चलने दो। ये विश्व ऐसा ही है, मुस्कुराओ और आगे बढ़ो।
अभिनन्दन

हम लोगों आजकल रोजाना किसी न किसी का अभिनन्दन करते हैं, आनंद बांटते हैं, ये सब एक बहुत औपचारिक स्तर पर रह कर करते हैं, करते हैं न ? जब कोई पानी का गिलास लाता है, तब हम उसको कहते हैं, "आपका बहुत बहुत धन्यवाद", इसमें बहुत बहुत का कोई अर्थ नहीं होता । जब आप सहारा रेगिस्तान में हों, और सच में बहुत प्यासे हो और कोई आपको एक गिलास पानी दे दे और कहें "आपका बहुत बहुत धन्यवाद", वहां ये वास्तविक है ।

क्षमा

यदि आप किसी को क्षमा नहीं करते हो तब आप लगातार सारे समय उनके ही विषय में सोचते रहते हो क्या किसी के लिए गुस्से को संभाल कर रखना आसान है ? हे ईश्वर, इसमें इतनी शक्ति नष्ट होती है क्या आप जानते हैं कि आप दूसरों को क्षमा क्यों करते हैं? ये आपके खुद के लिए होता है जब आप एक अपराधी को एक पीड़ित के जैसे देखते हैं तब आप उन्हें आसानी से क्षमा कर पाते हैं  हर अपराधी अनभिज्ञता से, संकीर्ण मानसिकता से पीड़ित होता है वो जीवन की विशालता और खूबसूरती को नहीं जानते और इसीलिए वो दूसरों की परवाह न करके सिर्फ अपने ही बारे में सोच कर ऐसी मूर्खतापूर्ण गलतियाँ कर बैठते हैं ऐसा इसलिए है क्योंकि उनका मन, उनकी मानसिकता संकीर्ण है, इसलिए हमें उन्हें माफ़ कर देना चाहिए फिर आप देखिये शायद उन्हें कभी आपके जैसे कुछ बड़ा सोचने और करने का अवसर कभी नहीं मिला, इसलिए आपको उनके प्रति करुणा रखते हुए उन्हें क्षमा कर देनी चाहिए

आध्यात्मिकता

आध्यात्मिकता तब होती है जब आप अपने अस्तित्व से वास्तव रूप में जुड़ जाते हैं । जीवन में जब हम हमेशा केवल ऊपर ऊपर से सबसे व्यवहार करते हैं, और जब उस गहराई की कमी होती है तब जीवन बहुत नीरस और बेकार सा लगने लगता है । हमें वास्तविकता, सच्चाई, और एक वास्तविक दिल से दिल के रिश्ते के स्तर पर बढ़ना चाहिए, इस ही को मैं आध्यात्मिकता कहता हूँ ।

क्रोध
हर समय क्रोध से मुक्त नहीं होना चाहिये। ज़रूरत पड़ने पर क्रोध को एक औज़ार की तरह प्रयोग करो। मैं ऐसा करने का प्रयत्न करता था, पर बहुत सफल नहीं रहा। कभी कभी मैं अपना क्रोध दिखाने का प्रयत्न करता हूं, पर इससे कोई फ़ायदा नहीं होता क्योंकि मुझे जल्दी ही हंसी आ जाती है और बाकी सब लोग भी साथ में हंसने लगते हैं। लोग विश्वास ही नहीं करते कि मैं गुस्सा हूं।पर, कभी कभी क्रोध अच्छा होता है। ख़ासतौर पर जब दुनिया में भ्रष्टाचार है, अन्याय है, और हर तरह के लोग हैं जो हर तरह के ग़लत काम करते हैं और तुम्हारा फ़ायदा उठाते हैं। ऐसी स्थिति में ये आवश्यक है कि तुम थोड़ा भंवों को चढ़ाओ, गुस्सा दिखाओ, ये अच्छा रहेगा।पर ये ख़्याल रखना कि तुम गुस्सा दिखाओ पर उसे अपने हृदय में मत उतारो, परेशान मत हो।

श्रद्धा

हम मोबाईल मोबाइल का इस्तेमाल करते हैं । अगर आप अंक दबाते रहें पर अंदर सिम कार्ड ना हो तो क्या कोई फायदा होगा? अगर सिम कार्ड है पर रेंज नहीं है तो क्या कुछ होगा? अगर रेंज भी है पर बैटरी नहीं है तो क्या कुछ होगा? साधना सिम कार्ड है, रेंज श्रद्धा है। अगर आप प्रार्थना करते हैं और आपको लगता है कि ईश्वर आपकी प्रार्थना नहीं सुन रहे तो आपके पास सिम कार्ड ही नहीं है। किसी प्रार्थना का असर नहीं होगा ऐसे में। सत्संग चार्ज की तरह है। मंदिर सोकेट की तरह हैं जहाँ बैटरी चार्ज होती है। अगर हम मंदिर में ही झगड़ा करते हैं तो वो शुद्ध चेतना तो रह ही नहीं जाती। वहाँ ईश्वर का वास कैसे होगा? जहाँ सब खुश होते हैं, वहाँ ईश्वर का वास होता है। जब मन खुश होता है तो हमारा भी काम होता है और हम में दूसरो को आशीर्वाद करने की क्षमता भी आती है। आत्मा में सब गुण निहित हैं। आत्म ज्ञान से यह सब गुण उजागर होते हैं। अगर आप लोगों को आशीर्वाद करते हैं, लोगों का शुभ चाहते हैं तो सब होने लगता है।

चेतना

चेतना को ऊर्ध्वगामी बनाने में और अपने आप से और अपने परिवेश से अपने संबंध को सुदृढ़ करने के लिये क्या करना चाहिये? ये कुछ सक्षम सूत्र हैं -
उप्युक्त भोजन : भोजन से हमारे मन पर असर पड़ता है। जैन परंपरा में मन पर भोजन के प्रभाव के विषय में बहुत शोध किया है । आयुर्वेद, चीनी चिकित्सा पद्दति एवं विश्व की अन्य कई प्राचीन परंपराओं में भोजन से होने वाले मन पर प्रभाव को पहचाना था। आधुनिक विज्ञान भी इस बात की पुष्टि करता है कि भोजन से हमारी भावनाओं पर सीधा प्रभाव पड़ता है। भावनात्म्क रूप से परेशान बच्चे अधिक भोजन लेते हैं और मोटापे के शिकार हो जाते हैं। एक संतुलित आहार का हमारी भावनाओं पर सकारात्मक प्रभाव होता है और इसका असर हमारी चेतना पर होता है।
हल्का या मध्यम व्यायाम|
पंचकर्म : आयुर्वेद की प्राचीन चिकित्सा परंपरा में भीतरी सफ़ाई की एक प्रक्रिया है जिसे पंचकर्म कहते हैं। पंचकर्म में शामिल होती हैं - मालिश प्रक्रिया, निर्धारित भोजन, और शरीर की भीतरी सफ़ाई। इससे हज़ारों लोगों को तनाव से मुक्त होने में और अपने व्यवहार में आये विकारों से मुक्त होने में सहायता मिली है। साथ ही, ये कई बीमारियों से छुटकारा दिलाता है।
योग, ध्यान और प्राणायाम : योग, ध्यान और प्राणायाम। अपने शरीर और पर्यावरण को सम्मान की दृष्टि से देखने में ये बहुत सहायक हैं। ये अपने शरीर और पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने में सहायक होता है और भावनात्मक असंतुलन से भी मुक्त करता है।
संगीत और नृत्य : इनसे शरीर और मन में तारतम्यता और समतुलना आती है। खासतौर पर उस संगीत से जो कि बहुत तेज़ और कोलाहलपूर्ण ना हो। शांतिदायक संगीत हमारे मन और शरीर में एक स्पंदन पैदा करता है जो कि समतुलना लाता है, जैसे कि शास्त्रीय और लोक संगीत।
प्रकृति : प्रकृति के साथ समय बिताना, मौन रहना, प्रार्थना करना..ये बहुत सहायक हैं अपने मन के साथ रहने में।
और फिर सेवा। यह जीवन में संतुष्टि के लिए अनिवार्य है।

संस्कृत

यदि बच्चा संस्कृत पढ़ता है, वो कोई भी भाषा अच्छे से और जल्दी से सीख सकता है, और उसका दिमाग कंप्यूटर के लिए भी अधिक तीक्ष्ण हो जाता है। इंग्लैंड में इस विषय पर १५ साल की खोज हुई। भारत की IT के क्षेत्र में उन्नति का एक महत्वपूर्ण कारण पृष्ठभूमि में संस्कृत भाषा की नींव है। इस खोज के बाद लंदन के ३ महत्वपूर्ण स्कूलों में संस्कृत भाषा ज़रुरी कर दी गई है। और हमारे यहाँ संस्कृत भूले जा रहे हैं। आप रशियन, इटैलियन, जर्मन और अंग्रेज़ी भाषा को ही लेते हैं तो इसमें ५० प्रतिशत शब्द संस्कृत भाषा से हैं। तमिल भाषा के इलावा बाकी सब भारतीय भाषाओं में संस्कृत भाषा के अधिकतम अंश हैं।संस्कृत भाषा भारत की राष्ट्रीय भाषा होनी चाहिए’ - एक वोट की कमी के कारण यह बिल पार्लियामेंट में पास नहीं हो सका। हाल ही में TV में आया था कि सबसे पहला हवाई जाहज भारत ने विश्व को दिया। यह इंग्लैंड के अखबार में भी आया था।

बुरी आदतें

बुरी आदतें सिर्फ़ तीन ही तरह से छूट सकती हैं:
एक तो लालच से। अगर कोई तुमसे कहे कि तुम एक महीने धूम्रपान नहीं करोगे तो तुम्हें एक मिलियन डौलर मिलेंगे, तो तुम कहोगे, ‘एक महीने क्यों, मैं ३५ दिनों तक धूम्रपान नहीं करूंगा। पांच दिन अधिक धूम्रपान नहीं करूंगा, कि कहीं गिनती में कोई कमी ना रह जाये।लालच से तुम उन आदतों से छूट सकते हो जो तुम्हें पसंद नहीं हैं।
दूसरा उपाय है भय। अगर कोई कहे कि तुम्हें धूम्रपान करने से विभिन्न प्रकार के कैंसर हो जायेंगे, तब तुम धूम्रपान को हाथ भी नहीं लगाओगे।
तीसरा उपाय है, जिससे तुम प्रेम करते हो उससे वादा करना। अगर तुम अपने प्रियजन से वादा करते हो तब भी तुम धूम्रपान छोड़ दोगे।
मैं इस तीसरे उपाय के पक्ष में हूं। या फिर, अंततः तुम खुद ही जान जाओगे कि, ‘ओह! इस में बहुत तकलीफ़ है। मैं इस आदत को बरकरार रख कर दुख ही पा रहा हूं।तो, एक दिन जब तुम ये जान जाओगे तो वो आदत स्वतः छूट जायेगी।

प्रेम का प्रमाण

कभी भी एक दूसरे से प्रेम का प्रमाण मत मांगना। ये मत पूछना, ‘क्या तुम मुझे सचमुच प्रेम करते हो? तुम मुझे पहले जैसा प्रेम नहीं करते।अपने प्रेम को प्रमाणित करना बहुत बोझिल कार्य है। अगर कोई तुम से कहे कि अपने प्रेम को प्रमाणित करो तो तुम कहोगे, ‘हे भगवान! मैं इस व्यक्ति को कैसे बताऊं ?’ हर काम कुछ ख़ास अदाज़ में और मुस्कुराते हुये करो।

विरोधाभास

किसी ऐसे एक फ़िल्म की कल्पना करो जिस में कोई विलेन ना हो। कल्पना करो कि केवल एक हीरो है, जो खाता है, सोता है, और बस यूं ही रहता है, कोई काम नहीं करता है क्या तुम ऐसी फ़िल्म देखोगे? विरोधाभासी मूल्य एक दूसरे के पूरक होते हैं। कांटे और पंखुड़ियां, दोनो ही हैं। आप दोनों में से किसी को भी चुन सकते हैं। ईश्वर आपके भीतर हैं। कभी वे सोते हैं, कभी छुप जाते हैं, कभी जागृत होते हैं और कभी नाचते हैं। थोड़ी साधना के बाद ईश्वर जागृत हो जाते हैं। तब वे चैतन्य होते हैं। अपने भीतर के देवी देवता को जगाओ!एक पत्थर, महसूस नहीं कर सकता है पर एक मनुष्य महसूस कर सकता है। अपने भीतर के देवत्व को जगाना अति आवश्यक है। इीलिये भारत में सुबह कुछ स्तोत्र गाये जाते हैं, ‘हे ईश्वर, आप जागे और हमें आशीर्वाद दें!एक स्तर से ये अजीब लगता है क्योंकि बच्चे को जगाना माता पिता का कार्य है, परंतु यहाँ मनुष्य, ईश्वर के लिये गाते हैं कि जागो और सृष्टि को आशीर्वाद दो। इस विरोधाभास में अस्तित्व का गहरा रहस्य छुपा है।

क्रोध

क्रोध का जन्म उत्तमता के प्रति तुम्हारे प्रेम के कारण ही होता है। अपने जीवन में तृटियों के लिये स्थान रखो। उन सब बातों की एक सूची बनाओ जो तुम्हें खराब लगती हैं। फिर अपने आस पास के लोगों से कहो कि वे उस सूची में लिखी सभी बातें करें! जब तुम क्रोधित हो जाओ तो उस संवेदना को महसूस करो। देखो तुम्हारे दांत कैसे भिंच जाते हैं। मन कैसा हो जाता है। कुछ लंबी गहरी सांसे लो और देखो अगर पहले की संवेदना से कुछ फ़र्क है। हालांकि क्रोध के मामले में मेरा अनुभव नहीं है, क्योंकि मुझे ये समस्या कभी नहीं हुई है। तो मेरी सलाह, अच्छी नहीं भी हो सकती है । तुम और लोगों से पूछो। यहाँ कई ऐसे लोग हैं जो तुम्हें बता सकते हैं। सुदर्शन क्रिया के नियमित अभ्यास से क्रोध शांत पड़ जाता है।

बंधन

मानव जीवन में बंधन का अर्थ है जो बांधता है, और रक्षा का अर्थ है बचाना। एक ऐसा बंधन जो आपकी रक्षा करता है ज्ञान के साथ बंधना, गुरु के साथ बंधना, सत्य के साथ बंधना, आत्मा के साथ बंधना ये सब आपकी रक्षा करते हैं। एक रस्सी का उपयोग आपको बचाने के लिये भी हो सकता है और आपका गला घोटने के लिये भी हो सकता है। आपका छोटा मन और सांसारिकता आपका गला घोट सकते हैं। आपका बृहद मन और ज्ञान आपकी रक्षा करते हैं। इस बंधन से आप बंधते हैं सत्संग से, गुरु से, सत्य से, ऋषियों के प्राचीन ज्ञान से, और वही आपका रक्षक है। जीवन में ऐसा बंधन आवश्यक है। उस बंधन को दिव्य बनाइये जिससे कि जीवन बंधन से मुक्त हो।

सत्संग

ऐसे महापुरुषों के सत्संग में आदरपूर्वक जावें । दर्शक बनकर नहीं याचक बनकर, एक नन्हें-मुन्ने निर्दोष बालक बनकर जो उन्नत किस्म के भगवदभक्त हैं अथवा ईश्वर के आनंद में रमण करने वाले तत्त्ववेत्ता संत हैं, तो साधक के दिल का खजाना भरता रहता है।
सो संगति जल जाय जिसमें कथा नहीं राम की।
बिन खेती के बाड़ किस काम की ?
वे नूर बेनूर भले जिनमें पिया की प्यास नहीं।।
जिनमें यार की खुमारी नहीं, ब्रह्मानंद की मस्ती नहीं, वे नूर बेनूर होते तो कोई हरकत नहीं। प्रसिद्धि होने पर साधक के इर्दगिर्द लोगों की भीड़ बढ़ेगी, जगत का संग लगेगा, परिग्रह बढ़ेगा और साधन लुट जायेगा। अतः अपने-आपको साधक बतलाकर प्रसिद्ध न करो, पुजवाने और मान की चाह भूलकर भी न करो। जिस साधक में यह चाह पैदा हो जाती है, वह कुछ ही दिनों में भगवत्प्राप्ति का साधक न रहकर मान भोग का साधक बन जाता है। अतः लोकैषणा का विष के समान त्याग करना चाहिए।

सुख-दुःख

इस जगत में सुख-दुःख, मान-अपमान, हर्ष-शोक आदि द्वन्द्व शरीर के धर्म हैं। जब तक शरीर है, तब तक ये आते जाते रहेंगे, कभी कम तो कभी अधिक होते रहेंगे। उनके आने पर तुम व्याकुल मत होना। तुम पूर्ण आत्मा हो, अविनाशी हो और सुख-दुःख आने जाने वाले हैं। वे भला तुम्हें कैसे चलायमान कर सकते हैं ? उनका तो अपना कोई अस्तित्व ही नहीं है। वस्तुतः, वे तो तुम्हारे अस्तित्व का आधार लेकर प्रतीत होते हैं। तुम उनसे भिन्न हो और उन्हें प्रकाशित करने वाले हो। अतः उन्हें देखते रहो, सहन करो और गुजरने दो। सर्वदा आनंद में रहो एवं शांतमना होकर रहो, सहन करो और गुजरने दो। सुख-दुःख देने वाले कोई पदार्थ नहीं होते हैं वरन् तुम्हारे मन के भाव ही सुख-दुःख पैदा करते हैं। इस विचार को सत् वस्तु में लगाकर अपने-आपमें मग्न रहो और सदैव प्रसन्नचित्त रहो। उद्यम न त्यागो। प्रारब्ध पर भरोसा करना कमजोरी का लक्षण है।


माता, पिता एवं गुरू

मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव।
हर संतान माता, पिता एवं गुरू को ईश्वर के समान पूजनीय समझे। उनके प्रति अपने कर्त्तव्य का पालन अवश्य करो, जो कर्त्तव्यपालन ठीक से करता है वही श्रेष्ठ है। माता, पिता एवं सच्चे सदगुरू की सेवा बड़े-में-बड़ा धर्म है। गरीबों की यथासम्भव सहायता करो। रास्ते से भटके हुए लोगों को सन्मार्ग की ओर चलने की प्रेरणा दो परंतु यह सब करने के साथ उस ईश्वर को भी सदैव याद करते रहो जो हम सभी का सर्जनहार, पालनहार एवं तारणहार है। उसके स्मरण से ही सच्ची शांति, समृद्धि तथा सच्चा सुख प्राप्त होगा।










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