ब्रह्म चैतन्य

आत्मचैतान्य


॥ ॐ श्री परमात्माने नमः ॥
आप सभी के अंतर्मन में स्थापित ब्रह्मस्वरूप को प्रणाम करते हुए वेदांत - दर्शन (ब्रह्मसूत्र ) का पहला अध्याय शुभारंभ किया जा रहा है ।
॥ एको हि रुद्रो न द्वितीयाय तस्थुः। रूद्र आप सब का कल्याण करें ॥
परमात्मा कौन है ?
"त्वमेव माता च पिता त्वमेव |त्वमेव माता च पिता त्वमेव |
त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव | त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव |
त्वमेव सर्वं मम देवदेव || मुकं करोति वाचलं पंगुं लंघयते गिरिम l
यत्कृपा तमहं वन्दे परमानंदमाधवं ll

अर्थात ~ हे परमात्मा तू ही माता है, पिता भी तू ही है, तू ही भाई, तू ही सखा (सहायक) है तू ही ज्ञान तथा तू ही धन है हे देवों के देव । मेरे लिए सभी कुछ तू ही है । हे माधव यदि आपकि कृपा हो तो गुँगे भी बोल सकते है
पंगु पर्वत लांघ सकते है हे परमानन्द आपको मेरा नमन है । तो ऐसे हैं हमारे परमात्मा उनको बारम्बार नमन ।

आइये इस परमात्मा के खोज में शुरू करते है ब्रह्म सूत्र के प्रथम पाद से :-

१.१.१.अथातो ब्रह्मजिज्ञासा

अथ = अब , अतः = यहाँ से , ब्रह्मजिज्ञासा = ब्रह्मविषयक विचार आरम्भ किया जाता है ।

इस सूत्र में ब्रह्मविषयक विचार आरम्भ करने की बात कहकर यह सूचित किया गया है की ब्रह्म कौन है ? इसका स्वरुप क्या है ? वेदांत में उसका वर्णन किस प्रकार हुआ है ? इत्यादि सभी ब्रह्मविषयक बातों का विवेचन किया जाना है ।
॥ १.१.२ ॥ जन्माद्यस्य यतः ॥

  जन्मादि = जन्म आदि (उत्पत्ति , स्थिति और प्रलय ) , अस्य = इस जगत के , यतः = जिससे होते हैं , वह ब्रह्म है ।

इस पद की सामान्य व्याख्या यह है की जो जड़ - चेतनात्मक जगत सर्वसाधारण के देखने , सुनने और अनुभव में आ रहा है , जिसकी अद्भुत रचना के किसी एक अंश पर भी विचार करने से बड़े से बड़े वैज्ञानिकों को आश्चर्यचकित होना पड़ता है , इस विचित्र विश्व के जन्म आदि जिससे होते हैं अर्थात जो सर्वशक्तिमान परात्पर परमेश्वर अपनी अलौकिक शक्ति से इस सम्पूर्ण जगत की रचना कर्ता है तथा इसका धारण पोषण तथा नियमित रूप से संचालन कर्ता है एवं फिर प्रलयकाल आने पर जो इस समस्त विश्व को अपने में विलीन कर लेता है , वह परमात्मा ही ब्रह्म है ।

श्रीमद भागवत में भी यही कहा गया है-

|| परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च ||

अर्थात इस परमेश्वरी की ज्ञान , बल और क्रियारूप स्वाभाविक दिव्य शक्ति नाना प्रकार की ही सुनी जाती है ।

॥ १.१.३ ॥ शास्त्रयोनित्वात ॥

अर्थात ~ शास्त्र (वेद) के योनि-कारण अर्थात प्रमाण होने से ब्रह्म का अस्तित्व सिद्ध होता है एवं शास्त्र में उस ब्रह्म को जगत का कारण बताया ,इसलिए (इसको जगत का कारन मानना उचित है )। वेद में जिस प्रकार ब्रह्म के सत्य , ज्ञान और "अनंत सत्यं ज्ञान्मनतम ब्रह्म "(तै.उ.) और आदि लक्षण बताये गए हैं , उसी प्रकार उसको जगत का कारण भी बताया गया है ।

"एष योनिः सर्वस्य " (मा. उ.) ~ यह परमात्मा सम्पूर्ण जगत का कारण है ।

यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, येन जातानि जीवन्ति
यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति । तद्विजिज्ञासस्व । तद्ब्रह्मेति । (तै.उ.)
ये सब प्रत्यक्ष दिखने वाले प्राणी निससे उत्पन्न होते हैं , उत्पन्न होकर जिसके सहारे जीवित रहते हैं तथा अंत में प्रयाण करते हुए जिसमें प्रवेश करते हैं , उसको जानने की इच्छा कर , वही ब्रह्म है ।

प्रभु श्रीकृष्ण जब अर्जुन को विराट रूप के बारे में जानकारी देते हैं तो अर्जुन भी कहते हैं
"नमः पुरस्तादतथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व ।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः । (गीता)"
हे अनंत सामर्थ्यों वाले। आपके लिए आगे से और पीछे से भी नमस्कार है। हे सर्वात्मन। आपके लिए सब और से ही नमस्कार हो । क्योँकि अनंत पराक्रमशाली आप समस्त संसार को व्याप्त किये हुए हैं , इससे आप ही सर्वरूप हैं अर्थात सब कुछ आप ही हैं ।

॥ १.१.४॥ इक्षातेर्नारशब्दम ॥

ईक्षते = श्रुति में ईक्ष (संभावना करना या कल्पना करना ) शब्द का प्रयोग होने के कारण , अशब्दम = शब्द प्रमाण शून्य प्रधान ( त्रिगुणात्मक जड़ प्रकृत्ति ) , न = जगत का कारण नहीं ।
उपनिषद में जहाँ सृष्टि का प्रसंग आया है वहां ईक्ष धातु की क्रिया का प्रयोग हुआ है , जैसे सदेव सौम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयं ब्रह्म – तत् सत्यं – स आत्मा – तत्वमसि।
(सृष्टि-उत्पत्ति से पूर्व प्रलयावस्था में भी यह जगत् अपने कारण में विद्यमान था। असद्वा इदमग्र आसीत्- सृष्टि के पूर्व ये सब लोक-लोकान्तर अदृश्य-से, असत्-से थे। आत्मैवेदमग्र आसीत्- सृष्टि से पूर्व प्रलयावस्था में भी आत्मा थे ही। ब्रह्म वा इदमग्र आसीत्- इन आत्माओं को कर्मानुसार फल देनें के लिए, सृष्टि का निर्माण करनेवाले ब्रह्म तो अनादि काल से हैं ही... छा.उ.६.२.१)
इस प्रकार प्रकरण आरंभ करके तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति (छान्दोग्य उप0 , ६.२.३ ) " तदैक्षत " यह विचारणीय प्रश्न है कि जगत् का मूल तत्त्व जड़ है अथवा चेतन ? नैयायिक और वैशेषिक जड़ परमाणुओं से जगत् की उत्पत्ति मानते हैं । सांख्य मत में जड़ प्रधान सृष्टि का कृर्त्तृकारण है । अपितु वेदान्त चेतन ब्रह्म को जगत् का मूल कारण मानता है और कहता है की - उस सत ने ईक्षण `संकल्प किया की मैं बहुत हो जाऊं ,अनेक प्रकार से उत्पन्न होऊं `।
इसी प्रकार दूसरी जगह भी ' आत्मा वा इदमेकमेवाग्र आसीत ' इस प्रकार आरम्भ करके ' स इक्षत लोकान्नु सृजै ' (ऐ.उ.१.१.१) अर्थात उसने ईक्षण - विचार किया की निश्चय ही मैं लोकों की रचना करूँ । ईश्वरीय मन के एक विचार ने ही सृष्टि की रचना की। संभवतः अंत में इसी मन की इच्छा से सृष्टि समाप्त भी होगी। ब्रह्माण्ड का शाब्दिक अर्थ एक विशाल अंड(गोला) ही है, महाभारत के प्रथम अध्याय में इसके बारे वृहत विवेचना की गयी है और कहा है की इसी अंड से सब कुछ उत्पन्न हुआ है-मूर्त अथवा अमूर्त। तथा यह विचार वैज्ञानिक अवधारणा से भी मेल खाता है जिसके अनुसार सारा द्रव्य एक बिंदु पे संकेंद्रित था। परन्तु त्रिगुणात्मिका प्रकृति जड़ है , इसमें ईक्षण या संकल्प नहीं बन सकता ; क्योंकि वह (ईक्षण) चेतन का धर्म है , अतः शब्द प्रमाणरहित प्रधान (जड़ प्रकृत्ति ) को जगत का उत्पादन कारण नहीं माना जा सकता ।
॥ १.१.६॥ गौणश्चेन्नात्मशब्दात

चेत = यदि कहो ; गौण = ईक्षण का प्रयोग गौण वृत्ति से (प्रकृत्ति के लिए )हुआ है , न = तो यह ठीक नहीं है ; आत्मशब्दात = क्योंकि वहां आत्मा शब्द का प्रयोग है ।

व्याख्या -- ऊपर उद्धरित की हुई ऐतेरेय की श्रुति में ईक्षण का कर्ता आत्मा को बताया गया है ; अतः गौण - वृत्ति से भी उसका सम्बन्ध प्रकृत्ति के साथ नहीं हो सकता । इसलिए प्रकृत्ति को जगत का कारन मानना वेड के अनुकूल नहीं है ।
आत्मा शब्द का प्रयोग तो मन , इन्द्रिय और शारीर के लिए भी आता है ; अतः उक्त श्रुति में आत्मा को गौणरूप से प्रकृति का वाचक मानकर उसे जगत का कारन मान लिया जय तो क्या आपत्ति है ?
॥ १.१.७॥ तन्निष्ठस्य मोक्षोपदेशात ॥

तन्निष्ठस्य= उस जगत्कारण (परमात्मा) में स्थित होनेवाली की ; मोक्षोपदेशात = मुक्ति बतलायी गयी है ; इसलिए (वहां प्रकृति को जगत्कारण नहीं माना जा सकता ।

तैत्तिरीयोपनिषद की दूसरी वल्ली के सातवें अनुवाक में जो सृष्टि का प्रकरण आया है , वहां स्पष्ट कहा गया है की -

" तदात्मानं स्वयमकुरुत। तस्मात्तत् सुकृतम् उच्यत इति। यद्वै तत् सुकृतं रसो वै सः। (तैत्तिरीय उपनिषद् २/७/१-२)"

उस ब्रह्मा नें स्वयं ही अपने- आपको इस जड़ - चेतानान्त्मक जगत के रूप में प्रकट किया एवं साथ ही यह भी बताया गया है की -

' यदा ह्येवैष एतस्मिन्नदृश्ये ऽनात्म्ये ऽनिरुक्ते ऽनिलयने ऽभयं प्रतिष्ठां विन्दते । अथ सो ऽभयं गतो भवति ।'

यह जीवात्मा जब उस देखने में न आने वाले , अहंकार रहित , न बतलाये जाने वाले , स्थान रहित आनंदमय परमात्मा में निर्भय निष्ठां करता है - अविचल भाव से स्थित होता है , तब यह अभय पद को पा लेता है ।

इसी प्रकार छान्दोग्योपनिषद में भी श्वेतकेतु के प्रति उसके पिता ने उस परम कारण में स्थित होने का फल मोक्ष बताया है ; किन्तु प्रकृति में स्थित होने से मोक्ष होना कदापि संभव नहीं है, अतः उपर्युक्त श्रुतियों में आत्मा शब्द प्रकृति का वाचक नहीं है, इसलिए प्रकृति को जगत का कारण नहीं माना जा सकता

॥ १.१.८॥ हेयत्वावचनाच्च ॥

हेयत्वावचनात=त्यागने योग्य नहीं बताये जाने के कारण ; च=भी (उस प्रसंज्ञ में आत्मा शब्द प्रकृति का वाचक नहीं है ) आत्म नहीं त्याज्य पर जगत निमित परब्रह्म। कर निष्ठा आत्म – परमात्म बिन श्रम पा परब्रह्म ।।

अर्थात ~ यदि आत्मा शब्द वहां गौणवृत्ति से प्रकृति का वाचक होता तो आगे चलकर उसे त्यागने के लिए कहा जाता और मुख्या आत्मा में निष्ठां करने का उपदेश दिया जाता ; किन्तु ऐसा कोई वचन उपलब्ध नहीं होता है । जिसको जगत का कारण बताया गया है , उसी में निष्ठां करने का उपदेश दिया गया है ; अतः परब्रह्म परमात्मा ही आत्मा शब्द का वाच्य है और वही इस जगत का निमित्त एवं उपादान कारण है ।

१.१.९॥ स्वाप्ययात ॥

स्वाप्ययात = अपने में विलीन होना बताया गया है ; इसलिए ( सत- शब्द भी जड़ प्रकृति का वाचक नहीं हो सकता )

अर्थात ~ छान्द्ग्योपनिषद में कहा गया है की ' यत्रैतत पुरुषः स्वपिति नाम सता सोम्य तदा सम्पन्नो भवति स्वमपीतो भवति तस्मादेनं स्वपितित्याचक्षते' (६। ८।१ )इस का अर्थ यह है की - हे सौम्य ! जिस अवस्था में यह पुरुष ( जीवात्मा ) सोता है , उस समय यह सत (अपने कारण ) से संपन्न (संयुक्त ) होता है ; स्व -अपने में ,अपित-विलीन होता है , इसलिए इसे 'स्वपिति' कहते हैं । यहाँ स्व (अपने) में विलीन होना कहा गया है ; अतः यह संदेह हो सकता है की स्व जीवात्मा का वाचक है , इसलिए वही जगत का कारण है , परन्तु ऐसा समझना ठीक नहीं है , क्योंकि पहले जीवात्मा का सत( जगत के कारण ) से संयुक्त होना बताकर उसी सत को पुनः स्व नाम से कहा गया है और उसी में जीवात्मा के विलीन होने की बात कही गयी है । विलीन होने वाली वस्तु से लय का अधिष्ठान भिन्न होता है ; अतः यहाँ लीन होने वाली वस्तु जीवात्मा है और जिसमें वह लीन होता है वह परमात्मा है । इसलिए यहाँ परमत्मा को ही सत के नाम से जगत का कारण बताया गया है , एवं यही मानना ठीक है ।


१.१.१०॥ गतिसामान्यात ॥

गतिसामान्यात=सभी उपनिषद वाक्यों का प्रवाह सामान रूप से चेतन को ही जगत का कारण बताने में है , इसलिए (जड़ प्रकृति को जगत का कारण नहीं माना जा सकता ) ।
अर्थात ~ 'तस्माद वा एतस्मादात्मनः आकाशः संभूतः' (तै.उ. २/१) 'निश्चय ही सर्वत्र प्रसिद्द इस परमात्मा से आकाश उत्पन्न हुआ है ।
' आत्मत एवेदं सर्वम (छा . उ. ७/२६/१) - परमात्मा से ही यह सब कुछ उत्पन्न हुआ है ।
' आत्मन एष प्राणों जायते ' (प्र. उ. 3/3 ) - परमात्मा से यह प्राण उत्पन्न होता है ।
'एतास्माज्जायते प्राणों मनः सर्वेन्द्रियाणि च ; खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी ।'(मु. उ. २/१/३) - इस परमेश्वर से प्राण उत्पन्न होता है ; तथा मन (अन्तःकरण) ,समस्त इन्द्रियां आकाश ,वायु, तेज, जल और सम्पूर्ण प्राणियों को धारण करने वाली पृथिवी ,ये सब उत्पन्न होते है ।
इस प्रकार सभी उपनिषद वाक्यों में सामान रूप से चेतन परमात्मा को ही जगत का कारण बताया गया है ; इस लिए जड़ प्रकृति को जगत का कारण नहीं माना जा सकता ।


॥ १.१.११ ॥ श्रुतत्वाच्च ॥

श्रुतत्वात = श्रुतियों द्वारा जगह - जगह यही बात कही गयी है , इसलिए ; च = भी (परब्रह्म परमेश्वर ही जगत का कारण सिद्ध होता है ) ।

अर्थात ~ 'स कारणं कारणाधिपाधिपो न चास्य कश्चिज्जनिता न चाधिपः । (श्वेता . ६।९ ) - वह परमात्मा सबका परम कारण तथा समस्त कारणों के अधिष्ठ्ताओं का भी अधिपति है । कोई भी न तो इसका जनक है और न स्वामी ही है । ' स विश्वकृत (श्वेता . ६।१६ )- वह परमात्मा समस्त विश्व का सृष्टा है । 'अतः समुद्रा गिरयाश्च सर्वे (मु . उ. २।१।९ ) - इस परमेश्वर से समस्त समुद्र और पर्वत उत्पन्न हुए हैं । इत्यादि रूप से उपनिषदों में स्थान -स्थान पर यही बात कही गयी है की सर्वशक्तिमान , सर्वज्ञ , परब्रह्म परमेश्वर ही जगत का अभिन्न निमित्तोपादान कारण है ; जड़ प्रकृति नहीं ।
स्वाप्ययात १.१.९ सूत्र में जीवात्मा के स्व ( परमात्मा ) में विलीन होने की बात कहकर यह सिद्ध किया गया की जड़ प्रकृति जगत का कारण नहीं है । किन्तु स्व शब्द प्रत्येक चेतन ( जीवात्मा ) के अर्थ में भी प्रसिद्द है ; अतः यह सिद्ध करने के लिए प्रत्येकचेतन (जीवात्मा ) भी जगत का कारण नहीं है , आगे प्रकरण आरंभ किया जाता है ।
तैत्तिरीयोपनिषद की ब्रह्मानन्दवल्ली में सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए सर्वात्म स्वरुप परब्रह्म परमेश्वर से ही आकाश आदि के क्रम से सृष्टि बताई गयी है ( अनु.१ ,६,७ ) । उसी प्रसंग में अन्नमय , प्राणमय , मनोमय , विज्ञानमय और आनंदमय इन पञ्च पुरुषों का वर्णन आया है । वहां क्रमशः अन्नमय का प्राणमय को , प्राणमय का मनोमय को , मनोमय को विज्ञानमय को और विज्ञानमय को आनंदमय का अंतरात्मा बताया गया है । आनंदमय का अंतरात्मा किसी को नहीं बताया गया है ; अपितु उसी से जगत की उत्पत्ति का कारण बताकर आनंद की महिमा का वर्णन करते हुए सर्वात्मा आनंदमय को जानने का फल उसी को प्राप्ति बताया गया और ब्रह्मानन्दवल्ली को समाप्त कर दिया गया है ।
यहाँ यह प्रश्न उठता है की इस प्रकरण में आनंदमय नाम से किसका वर्णन हुआ है - परमेश्वर का ? जीवात्मा का ? अथवा अन्य किसी का ? इस पर कहते हैं -


॥ १.१.१२॥ आनदमयोऽभ्यासात ॥

आनन्दमयः = आनंदमय शब्द ( यहाँ परब्रह्म परमेश्वर का ही वाचक है ) ; अभ्यासात् = श्रुति में बारंबार 'आनद' शब्द का ब्रह्म के लिए प्रयोग होने के कारण।

अर्थात ~ किसी बात को दृढ़ करने के लिए बारंबार दुहराने को अभ्यास कहते हैं । तैत्तिरीय तथा बृहदारण्यक आदि अनेकों उपनिषद में आनंद शब्द का ब्रह्म के अर्थ में बारम्बार प्रयोग हुआ है ; जैसे तैत्तिरीय उपनिषद की ब्रह्मवल्ली के छठे अनुवाक में बारम्बार आनंदमय शब्द का वर्णन करके सातवें अनुवाक में उसके लिए 'रसो वै सः । रसँह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति । को ह्योवान्यात कः प्राण्याद यदेष आकाश आनंदों न स्यात । एष ह्योवानन्दयाती । (२। ७ ) अर्थात 'वह आनंदमय ही रसस्वरुप है , यह जीवात्मा इस रस स्वरुप परमात्मा को पाकर आनंदयुक्त हो जाता है । यदि वह आकाश की भांति परिपूर्ण आनंदस्वरूप परमात्मा नहीं होता तो कौन जीवित रह सकता , कौन प्राणों की क्रिया कर सकता है? सचमुच यह परमात्मा ही सबको आनंद प्रदान करता है ।' ऐसा कहा गया है तथा 'सैषाऽऽनन्दस्य मिमाँसा भवति ',एत्मानान्दमयमात्मानमुपसंक्रामती' । (तै॰ उ॰ २। ८ ) 'आनंदम ब्राह्मणों विद्वान न बिभेति कुतश्चन ' (तै॰ उ॰ २।९ ) 'आनंदों ब्रह्मेति व्यजानात '(तै॰ उ॰ ३।६ ) 'विज्ञानमानन्दनं ब्रह्म ' (बृह॰ उ॰ 3। ९ । २८) - इत्यादि प्रकार से श्रुतियों में जगह-जगह परब्रह्म के अर्थ में 'आनंद' एवं 'आनंदमय' शब्द का प्रयोग हुआ है । इसलिए 'आनंदमय' नाम से यहाँ उस सर्वशक्तिमान , समस्त जगत के परम कारण , सर्वनियंता, सर्वव्यापी , सबके आत्मस्वरूप परब्रह्म परमेश्वर का ही वर्णन है , अन्य किसी का नहीं। यहाँ यह शंका होती है की ' आनंदमय ' शब्द में जो मयट् प्रत्यय है वह विकार अर्थ का बोधक है और परब्रह्म परमात्मा निर्विकार है । अतः जिस प्रकार अन्नमय आदि शब्द ब्रह्म के वाचक नहीं है , वैसे ही , उन्हीं के साथ आया हुआ यह शब्द 'आनंदमय' शब्द भी परब्रह्म का वाचक नहीं होना चाहिए । इस पर कहते हैं
-

No comments:

Post a Comment