Sunday, September 30, 2012

आप सभी जानते हैं की सनातन धर्म कोई नाम नहीं है , यह तो केवल यह बताता है कि धर्म सदा से था । मनुष्य का शाश्वत व सनातन धर्म जो है , उसे सनातन धर्म कहा जाता है । हम हिंदुओं को अपने धर्म का नाम रखने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई । इसका कारण है , नाम की आवश्यकता कब महसूस होती है , जब किसी दूसरे की उपस्थिति हो , जब कोई दूसरा हो ही नहीं तो नाम अनावश्यक हो जाता है । एक से अधिक लोग हों तो नाम आवश्यक हो जाता है , नहीं तो किसी को पुकारेंगे कैसे ? एक बात और ध्यान में लेना चाहिये कि नाम हमेशा दूसरे के ही द्वारा दिया जाता है , तो ऐसे ही 'हिंदू' नाम अन्य लोगों के द्वारा ही दिया गया है । जिस किसी के द्वारा हिंदू नाम दिया गया हो , लेकिन यह नाम उन लोगों को दिया गया , जो सनातन धर्म का पालन कर रहे थे । आज विश्व में जो भी हिंदू नाम से जाने जाते हैं, वो वही सनातन धर्मीय हैं ।
हमारा सनातन धर्म सिर्फ आपको सत्य ही नहीं बताता है बल्कि सत्य का साक्षात्कार कैसे किया जाए यह भी बताता है । इस धर्म में ऐसी विधियाँ हैं जो आधुनिक मनुष्य के तनावग्रस्त मन को शांति प्रदान करती हैं । योग और तंत्र में सैकड़ों विधियाँ हैं जो किसी भी व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में सहायक हैं । हिंदुत्व का पूरा जोर ही आत्मज्ञान पर है । हिंदुत्व की मान्यता है, जो सच भी है कि हर मनुष्य जन्मतः आत्मज्ञानी है ही, बस वो इस बात को भूल गया है । इसीलिए अध्यात्म का सारा जोर इसी पर है कि व्यक्ति अपनी मूर्छा से जगे और जान ले कि वह शुद्ध और बुद्ध है । हिंदुत्व अपने पराये का भेदभाव नहीं करता है, वह तो सारे विश्व को ही एक परिवार समझता है । कोई इस धर्म को नहीं भी मानता है तो उसके प्रति किसी भी तरह का क्लेश नहीं रखता है ।
आज समय की मांग है की हर मानव तक सर्व श्रेष्ठ सनातन धर्म का दर्शन पहुँचाने की आवश्यकता है । अन्य लोगों को भी सत्पथ पर लाना धर्म का ही अंग है । हमें दोतरफा काम करना होगा । एक तरफ हमें सत्य के नाम पर जो असत्य का प्रचार हो रहा है उसकी असलियत लोगों तक पहुंचानी होगी । दूसरी तरफ लोगों को सत्य मार्ग पर चलने के लिए प्रोत्साहित करना होगा । यह सही है कि हिंदुत्व को समझना हर किसी के लिए संभव नहीं है , लेकिन हमारा कर्तव्य है कि जो लोग भटके हुए हैं उन तक सही मार्ग की जानकारी पहुंचाएं । जिस दिन सारा विश्व हिंदुत्व को समझने लगेगा, मानने लगेगा , उसी दिन ऋषियों का स्वप्न -"कुर्वन्तु विश्वम आर्यम " पूर्ण होगा । और यह होगा , इसे कोई रोक नहीं सकता है।
संस्कृत के जानकार , मैक्समूलर, जिन्होंने शायद सबसे पहले वेदों का परिचय यूरोप को करवाया । एक बार मैक्समूलर हिंदुत्व के ऊपर यूरोप में कहीं व्याख्यान दे रहे थे । अब हिंदू दर्शन तो है ही उच्चतम स्तर का.तो एक बिशप ने उनसे प्रश्न किया कि जब हिंदू दर्शन इतना उच्च कोटि का है तो हिंदू अन्य देशों में इसका प्रचार क्यों नहीं करते ? मैक्समूलर का उत्तर अद्भुत था पाश्चात्य लोगों के लिए । उन्होंने कहा कि हिंदू धर
्म को अपनी माँ समझते हैं और माँ का प्रचार करना उन्हें सही नहीं लगता है । हम देखते हैं कि अब्राहमिक पंथों के दर्शन हिंदू दर्शन के सामने ज्यादा महत्त्व के नहीं हैं लेकिन उनका प्रचार प्रसार ज्यादा हुआ है । हमारे ही देश में अब सनातन धर्म का ह्रास होने लगा है क्योंकि हमारे मस्तिष्क में पाश्चात्य परिवेश का पूर्ण प्रभाव है ।
संत कबीर का आध्यात्मिक अनुभव रहस्यानुभूतियों के विषय में कहना है-
हीरो पायो,गांठ गठियायो,बार-बार वाकोक्यूंखोले।
आशय यह कि आध्यात्मिक अनुभव इतने विचित्र, इतने एकांतिक, इतने दुरूह होते हैं और इतने बहुमूल्य भी कि उन्हें व्यक्त करने के प्रयास में उनके बिखर जाने का अथवा विलुप्त हो जाने का भय बना रहता है। अत:साधक और सिद्ध इन अनुभवों को गोपनीय ही रखते हैं।

मै कौन ?

आप का परिचय  ? यह प्रश्न पूछने पर प्रत्येक व्यक्ति अपना शारीरिक परिचय देगा और उत्तर में अपना नाम, लिंग, गुण, व्यवसाय बतलाता है जो की उसके मनुष्य शरीर रूप का परिचायक है एवं मूलतः जिसे वह अपने शरीर को  संबोधित करता है ।
हमारे आत्मा तथा शरीर का सम्बन्ध उदहारण स्वरुप ड्राईवर और मोटर के समान है । जैसे  मोटर में बैठकर ड्राईवर उसे चलाता है और अलग अस्तित्व रखता है, वैसे आत्मा भी शरीर में रहकर उसका संचालन करती है और शरीर से अलग अस्तित्व रखती है । जब आत्मा और शरीर का सम्बन्ध हो तब ही आत्मा जीव-आत्मा कहलाती है, तब ही मनुष्य शब्द कहने में आता है । आत्मा की देह की इन्द्रियों द्वारा कर्म करती है और उन्हीं कर्मो का फल सुख या दु:ख रुप में देह की इन्द्रियों द्वारा ही भोगती है इसलिए तो कहावत है कि आत्मा अपना ही मित्र है और अपना ही शत्रु है । आत्मा ही जीवात्मा के रुप में कर्मो के लेप - विक्षेप में आती है तब ही महात्मा, पुण्यात्मा, की संज्ञा का प्रयोग आत्मा के लिए होता है, न कि शरीर के लिए. शरीर का महत्व वा मूल्य तब तक है जब तक उसमें आत्मा का निवास है । जिस प्रकार बीज का महत्व ही तब है जब उसको धरती, जल, वायु या तेज दिया जाए, इसी प्रकार आत्मा का भी महत्व तभी है अथवा वह कर्म तब कर सकती है जब उसे शरीर प्राप्त है । तो आत्मा और शरीर इस संसार रुपी कर्मक्षेत्र में एक दुसरें के लिए परम आवश्यक हैं, लेकिन अनुभव करने वाली आत्मा है और शरीर उसका साधन या माध्यम है ।
इससे स्पष्ट है कि मैं कहने वाली आत्मा है, न कि शरीर । मैं आत्मा साधक हूँ और शरीर मेरा एक साधन है । शरीर और आत्मा के अन्तर का मूल भेद मैं और मेरा - इन दो सर्वनामों के प्रयोग से स्पष्ट किया जा सकता है, तो आप कौन है ? का सही उत्तर यही है कि मैं आत्मा हूँ और यह मेरा शरीर है । मैं शब्द आत्मा की ओर इंगित करता है और मेरा शब्द आत्मा के साधन शरीर की ओर संकेत करता है । इसी प्रकार शरीर के विभिनन अंगो के लिए भी मेरा शब्द का प्रयोग किया जाता है, न कि मैं शब्द का , जैसे कि मेरा, मुख, मेरे हाथ, मेरी आँखे आदि, समूचे शरीर के लिए - मेरा शरीर । जब हम कहते है कि हमे शान्ति चाहिए, तो शान्ति की इच्छा रखने वाला मैं कौन हूँ ? अगर केवल शरीर को शान्ति चाहिए तो किसी की मृत्यु के बाद जब शरीर शान्त हो जाता है तब फिर आत्मा की शान्ति की कामना नहीं की जानी चाहिए । किसी की मृत्यु हो जाने पर अगर कोई रोता है तो उसे इसलिए रोका जाता है कि कहीं रोने से आत्मा अशान्त न हो जाए । परमात्मा से प्रार्थना में भी यही कहते है कि - हे प्रभु ! इनकी आत्मा को शान्ति देना  मृतक शरीर के आगे दीपक जगाकर रखते हैं ताकि आत्मा को सही दिशा प्राप्त हो ।

पितृपक्ष में अपने पितरो का तर्पण

आयुः पुत्रान्‌ यशः स्वर्ग कीर्ति पुष्टि बलं यिम्‌। 

पशून्‌ सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात्‌ पितृपूजनात्‌।

सनातन धर्म की मान्यता है कि आश्विन मास के कृष्णपक्ष में यमराज सभी पितरों को अपने यहां से छोड़ देते हैं, ताकि वे अपनी संतान से श्राद्ध के निमित्त भोजन कर सकें ।  इस माह में श्राद्ध न करने वालों के अतृप्त पितर उन्हें श्राप देकर पितृलोक चले जाते हैं और आने वाली पीढ़ियों को भारी कष्ट उठाना पड़ता है
 गरुड़ पुराण में कहा गया है कि आयु: पुत्रान यश: स्वर्ग कीर्ति पु‌ष्टि बलं श्रियम्, पशून सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृजूननात अर्थात श्राद्ध कर्म करने से संतुष्ट होकर पितर मनुष्यों के लिए आयु, पुत्र, यश, मोक्ष, स्वर्ग कीर्ति, पुष्टि, बल, वैभव, पशुधन, सुख, धन व धान्य वृद्धि का आशीष प्रदान करते हैं
यमस्मृति में लिखा है कि पिता, दादा, परदादा तीनों श्राद्ध की ऐसे आशा रखते हैं जैसे वृक्ष पर रहते हुए पक्षी वृक्षों में लगने वाले फलों की. ब्राह्मण को पृथ्वी का भूदेव कहा गया है उसकी जठराग्नि कव्य को पितरों तक पहुंचाने का कार्य करती है पितृ जिस योनि में हों उसी रूप में अन्न उन्हें मिल जाता है इसलिए ब्राह्मण को भोजन कराने व दक्षिणा देकर संतुष्ट करने का भी विधान है
हम आज इस सुन्दर दुनिया में जिस माता, पिता, दादा, दादी, प्रपितामह, मातामही एवं अन्य बुजुर्गो के लाड, प्यार, श्रम से कमाए धन एवं इज्ज़त के सहारे  सुख पूर्वक विचरण कर रहे है । आज जब उनका पांच भौतिक शरीर पांच तत्त्व में विलीन हो गया है तो हमारा यह परम कर्त्तव्य बनता है कि अपने पितरो के उन पांचो तत्वों के संतुलित समन्वय के लिए निर्दिष्ट एवं अपेक्षित भूमिका निभाएं तथा कम से कम और कुछ नहीं कर सकते तो तर्पण तो कर दें ।
इस दृश्य संसार में स्थूल शरीर वाले को जिस प्रकार इन्द्रिय भोग, वासना, तृष्णा एवं अहंकार की पूर्ति में सुख मिलता है, उसी प्रकार पितरों का सूक्ष्म शरीर शुभ कर्म से उत्पन्न सुगन्ध का रसास्वादन करते हुए तृप्ति का अनुभव करता है। उसकी प्रसन्नता तथा आकांक्षा का केन्द्र बिन्दु श्रद्धा है। श्रद्धा भरे वातावरण के सान्निध्य में पितर अपनी अशान्ति खोकर आनन्द का अनुभव करते हैं, श्रद्धा ही इनकी भूख है, इसी से उन्हें तृप्ति होती है। इसलिए पितरों की प्रसन्नता के लिए श्रद्धा एवं तर्पण किये जाते हैं। इन क्रियाओं का विधि-विधान इतना सरल एवं इतने कम खर्च का है कि निधर्न से निधर्न व्यक्ति भी उसे आसानी से सम्पन्न कर सकता है। तर्पण में प्रधानतया जल का ही प्रयोग होता है। उसे थोड़ा सुगंधित एवं परिपुष्ट बनाने के लिए जौ, तिल, चावल, दूध, फूल जैसी दो-चार मांगलिक वस्तुएँ डाली जाती हैं। कुशाओं के सहारे जौ की छोटी-सी अंजलि मन्त्रोच्चारपूवर्क डालने मात्र से पितर तृप्त हो जाते हैं, किन्तु इस क्रिया के साथ आवश्यक श्रद्धा, कृतज्ञता, सद्भावना, प्रेम, शुभकामना का समन्वय अवश्य होना चाहिए।
पितृ-कर्मो के करने वाले यह ध्यान रखें कि इन छोटे-छोटे क्रिया-कृत्यों को करने के साथ-साथ दिवंगत आत्माओं के उपकारों का स्मरण करें, उनके सद्गुणों तथा सत्कर्मो के प्रति श्रद्धा व्यक्त करें। कृतज्ञता तथा सम्मान की भावना उनके प्रति रखें और यह अनुभव करें कि यह जलांजलि जैसे अकिंचन उपकरणों के साथ, अपनी श्रद्धा की अभिव्यक्ति करते हुए स्वगीर्य आत्माओं के चरणों पर अपनी सद्भावना के पुष्प चढ़ा रहा हूँ। इस प्रकार की भावनाएँ जितनी ही प्रबल होंगी, पितरों को उतनी ही अधिक तृप्ति मिलेगी। जिस पितर का स्वगर्वास हुआ है, उसके किये हुए उपकारों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना, उसके अधूरे छोड़े हुए पारिवारिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्व को पूरा करने में तत्पर होना तथा अपने व्यक्तित्व एवं वातावरण को मंगलमय ढाँचे में ढालना मरणोत्तर संस्कार का प्रधान प्रयोजन है।
धर्मशास्त्रोक्त सभी ग्रंथों के अनुसार तर्पण का जल सूर्योदय से आधे प्रहर तक अमृत, एक प्रहर तक मधु, डेढ़ प्रहर तक दुग्ध, साढ़े तीन प्रहर तक जल रूप से पितृ को प्राप्त होता है। श्राद्ध में तिल और कुशा सहित जल हाथ में लेकर पितृ तीर्थ यानी अंगूठे की ओर से धरती में छोड़ने से पितर को तृप्ति मिलती है। महर्षि पुलस्त्य के अनुसार जिस कर्मविशेष में दूध, घृत और मधु से युक्त अच्छी प्रकार से पके हुए पकवान श्रद्धापूर्वक पितृ के उद्देश्य से गौ, ब्राह्मण आदि को दिए जाते हैं वही श्राद्ध है। अतः जो लोग विधिपूर्वक शांत मन होकर श्राद्ध करते हैं वह सभी पापों से रहित होकर मोक्ष को प्राप्त होते हैं। उनका संसार में चक्र छूट जाता है।
राद्धपक्ष में पितर देवता की तरह पूजे जाते हैं और देवता भी जिस तरह भक्त की भावना से प्रसन्न होते हैं, ठीक उसी तरह से पूर्वज अपने वंशजों की भावनाओं से खुश होकर खुशहाली का आशीर्वाद देते हैं।
यथासंभव तर्पण का काम किसी ज्ञानी व विद्वान ब्राह्मण से कराया जाना श्रेष्ठ होता है। किंतु श्राद्ध करने वाले को भी तर्पण के वक्त कुछ बातों का ख्याल रख तर्पण करना चाहिए -
- तर्पण जल में खड़े होकर ही करना चाहिए। इसके विपरीत करने से निरर्थक माना जाता है।
- साधारण या नित्य तर्पण दोनों हाथों से करना चाहिए, किंतु श्राद्ध में तर्पण केवल दाहिने हाथ से करना चाहिए।
- श्राद्ध मे तिल-तर्पण का महत्व है। तिल से तर्पण खुले हाथ से करना चाहिए। तिलों को रोओं में या हाथ में लगे नहीं रहना चाहिए।
- स्नान-तर्पण, ग्रहण, महालय यानी श्राद्धपक्ष, तीर्थ-विशेष में तो तिल से तर्पण का कोई निषेध नहीं है, लेकिन तर्पण के लिए शुक्रवार, रविवार, संक्रांति में तिल का तर्पण निषेध है।
जो व्यक्ति पितृपक्ष के पंद्रह दिनों तक श्राद्ध तर्पण आदि नहीं कहते हैं वे अमावस्या को ही अपने पितृ के निमित्त श्राद्धादि संपन्न करते हैं। जिन पितृ की तिथि याद नहीं हो, उनके निमित्त श्राद्ध तर्पण, दान आदि इसी अमावस्या को किया जाता है। 


हमारे इस पावन धरा में संत भी है और शैतान भी, ज्ञान भी है और अज्ञान भी, सच भी है और झूठ भी, शांति भी और अशांति भी, हिंसा भी है अहिंसा भी, अपराध भी है और परमार्थ भी । विचार करो तुम क्या हो, कैसे हो, और क्यूँ हो ? स्व-इच्छा से किये गए कर्मो के फल स्वरुप ही तुम्हारी आज कि स्थिति और परिस्थिति तय हुयी है और उसके लिए तुम स्वयं उत्तरदायी हो । तुम सब कुछ अपनी शर्तो पर तो कतई नहीं पा सकते । कुछ अच्छा पान
े के लिए बुराई का साथ तो छोड़ना ही होगा । आगे बढने के लिए दृष्टी सामने लक्ष्य पर रखनी होगी और मन की कुटिलता को त्यागना होगा । शांति पाने की लिए ज्ञान पाना जरुरी है, ज्ञान को समझने के लिए सत्संग जरुरी है । सुख और शांति पाने के लिए ज्ञान को जीवन में उतारना जरुरी है और जीवन सही मायने सुखी तभी होगा जब हम सच का साथ देंगे, अहिंसा में विश्वास रखेंगे और समाजिक उत्थान के लिए परमार्थ करेंगे ।
आज का सुविचार :-

* अपने चरित्र में सुधार करने का प्रयास करते हुए, इस बात को समझें कि क्या काम आपके बूते का है और क्या आपके बूते से बाहर है।

* जो व्यक्ति दूसरों को अधिक परखता है और हर समय उनकी कमियां निकलता रहता है वह अहंकारी दरअसल हीन भावना से ग्रसित है और स्वयं कमियों से भरा हुआ होता है । परखना है तो स्वयं की कमियों का निरिषण करे और उसको सुधारने का प्रयत्न करे तो जीवन में प्रसन्नता, सुख और यश की निश्चित प्राप्ति होगी ।

* श्रेष्ठ व्यक्ति बोलने में संयमी होता है लेकिन अपने कार्यों में अग्रणी होता है।

* अपनी सामर्थ्य का पूर्ण विकास न करना दुनिया में सबसे बड़ा अपराध है । जब आप अपनी पूर्ण क्षमता के साथ कार्य निष्पादन करते हैं, तब आप दूसरों की सहायता करते हैं।
हमारे दो तरह के रिश्ते होते हैं । एक तो वो जो हमारे पैदा होते ही बन जाते हैं और दूसरा वो जो हम खुद बनाते है । जिसे हम बंधुत्व कहते हैं । विरासत मे मिले हुए रिश्ते तो कभी-कभी धोखा दे जाते हैं । लेकिन खुद का बनाया हुआ बंधुत्व का रिश्ता जीवन भर साथ निभाता है । यह रिश्ता जीवन भर अटूट बना रहता है जब तक इसमें हमारा स्वार्थ , अहंकार और अविश्वास की भावना न हो ।
हमें सपनो की दुनिया में सब कुछ अजीब सा लगता है । जो हमसे बहुत दूर है वो करीब सा लगता है । सच कहते है की सपना तो सिर्फ सपना होता है तो फिर क्यूँ ये हकीकत के जैसा अजीज लगता है ।
सोये हुए इंसान को जगाया जा सकता है, पर जो जागते हुए सो रहा है उसे कोई नहीं जगा सकता । उसी प्रकार जो अपनी जानकारी का स्वयं आदर नहीं करता और प्राप्त बल का सदुपयोग नहीं करता, उसकी कोई भी सहायता नहीं कर सकता । क्योंकि प्राकृतिक नियम के अनुसार विवेक के अनादर से अविवेक की और बल के दरुपयोग से निर्बलता की ही वृद्धि होती है। ज्यों-ज्यों प्राणी विवेक का अनादर तथा बल का दुरूपयोग करता जाता है, त्यों-त्यों विवेक में धुंधलापन और निर्बलता उत्तरोतर बढती ही रहती है। यहाँ तक की विवेकयुक्त जीवन छिन्न-भिन्न हो जाता है और प्राणी साधन करने के योग्य नहीं रहता।

Saturday, September 29, 2012

मंगल सुप्रभात !!
भक्त ने भगवान से शिकायत करते हुए कहा: भगवन, अमीर लोग मंदिरों में आकर पैसे देते हैं और सीधे आपके दर्शन के लिए पहुंच जाते हैं। मैं गरीब घंटों बाहर धक्के खाता खड़ा रहता हूं तब कहीं जाकर आपकी एक झलक देखने को मिलती है। आप भी अमीरों को पहले दर्शन देने लगे हैं?
भगवान ने कहा: जो अमीर पैसे देकर मंदिर में प्रवेश करते हैं उन्हें सिर्फ मेरी मूर्ति देखने को मिलती है। दर्शन तो मैं सिर्फ तुम्हारे जैसे भक्तों को देता हूं।
एक अच्छे कार्य के लिए छोटा सा प्रयास भी काफी होता है। छोटे-छोटे प्रयास से ही हम बड़े लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं।
सनातन जीवन दर्शन विशेष रूप से किसी सीधी राह की बात नहीं सोचता, वह जीवन की जटिलताओं को अच्छी तरह ध्यान में रखते हुए ही लम्बी और घुमावदार राह की परिकल्पना करता है। सनातन धर्म में गुरू की कल्पना परित्राता के रूप में नहीं है, नेत्र - उन्मीलक के रूप में है, वह राह चलना नहीं सिखाता, राह पहचानना सिखाता है, चलना तो आदमी को स्वयं होता है।
हम सनातनी लोग पेड़ में, पौधे में, नदी में, पत्थर में, हवा में, बादल में, प्राणवत्ता देखते हैं और अपने काव्य, अपनी कला और अपने शिल्प में समस्त प्राणवान् वस्तुओं में एक लयबध्द स्पन्दन देखने की कोशिश करते हैं, और भूमिकाओं के विनिमय की बात सोचते हैं तो पत्थर की मूर्ति में प्राण आ जाता है और प्राणवान् आदमी पत्थर हो जाता है, प्रकृति सहचरी बनती है और सहचरी प्रकृति में छा जाती है।
हमारे सनातन धर्म में चार ऋणों की परिकल्पना है :-
१. ऋषि ऋण
२. पितृ ऋण
३. देव ऋण
४. भूत ऋण
ऋषि ऋण ब्रहमचर्य आश्रम और ब्राहमण के धर्म - स्वाध्याय से उतरता है।
पितृ ऋण गृहस्थ आश्रम और क्षत्रिय के सर्वपालक कार्य से उतरता है।
देवऋण बानप्रस्थ आश्रम और विनियम - प्रधान वैश्य के कार्य से उतरता है। देवता की उपासना में एक - दूसरे को उपकृत करने की भावना रहती है। यज्ञ और उपासना के द्वारा मनुष्य देवता को भावित

करता है उसी के द्वारा देवता भी मनुष्य को भावित करते हैं।
चौथे वर्ण, चौथे आश्रम और चौथे ऋण की परिकल्पना एक उत्तरवर्ती विकास है। तीन को अतिक्रमण करने वाले वर्ण, आश्रम और ऋण की अवधारणा वैदिक यज्ञ - संस्था के पूर्ण विकास के अनन्तर हुई। वर्णों में शूद्र को स्थान, आश्रमों में संन्यास को स्थान और ऋणों में भूतऋण या मनुष्य ऋण को स्थान देना एक सर्वग्राही व्यापक और आध्यात्मिक चिन्तन के उत्कर्ष के परिणामस्वरूप हुआ। भूतऋण या मनुष्य ऋण केवल अपने पिता का ऋण नही, केवल अपने देवता का ऋण नहीं, केवल अपनी ज्ञान - परम्परा का ऋण नहीं, बल्कि समस्त मनुष्य जाति और समस्त प्राणियों का ऋण है। उससे निस्तार पाने के लिए आदमी को निर्वर्ण हो जाना पड़ता है तथा उसे अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विलय कर देना पड़ता है- वह एक प्रकार से शूद्र हो जाता है और उसका जीवन केवल दूसरों के लिए ही शेष रह जाता है तभी वह परब्रहम के साथ जुड़ जाता है। इस प्रकार सनातन धर्म में सारा जीवन ऋणों से निस्तार पाने का प्रयत्न है और इसका अन्तिम भाव सेवाधर्म के द्वारा मनुष्य ऋण से विस्तार के लिए सुरक्षित है।
सनातन धर्मी जीवन-दर्शन कर्म का त्रिविध विभाजन करता है-प्रारब्ध, संचित और क्रियमाण। प्रारब्ध का भोग करना पड़ता है, संचित और क्रियमाण का भोग नियत रूप में नहीं करना पड़ता। आदमी चाहे तो अपने कठोर संकल्प के द्वारा ऐसा अभ्यास कर सकता है कि संचित और क्रियमाण कर्म ही प्रारब्ध का भोग कराते हुए भी जीवन क्रम को संचित की अपेक्षा से मुक्त कर लेता है और इसलिए वह पूर्वनियत फल की धारा को मोड़ भी देता है। इस अर्थ
में वह प्रारब्ध से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। क्रियमाण कर्म यदि ठीक तरह अनुवर्तित किया गया तो वह न केवल प्रारब्ध को भोगने के लिए भीतर से शक्ति और विश्वास देता है, बल्कि प्रारब्ध के भोग की अवधि को भी इस माने में कम कर सकता है कि कालावधि का अनुभव ही कम योग पूर्वक क्रियमाण कर्म के द्वारा संकुचित या विस्तृत किया जा सकता है। हिन्दू जीवन- दर्शन काल की किसी निरपेक्ष इकाई को नहीं स्वीकार करता। प्रत्येक व्यक्ति का स्वकर्म और स्वधर्म उसकी अपनी निजी क्षमता और परिस्थिति से निरूपित होता है। उसी कर्म को वह जब इस प्रकार करता है कि अपने लिए नहीं, बल्कि सर्वात्मा के लिए है तो वह सिध्दि प्राप्त कर लेता है। कोई भी कर्म अपने आप में छोटा-बड़ा नहीं, उसके अनुष्ठान का संकल्प और उस अनुष्ठान के पीछे निहित भावना से ही वह छोटा या बड़ा होता है।
प्रभु श्री कृष्ण जी श्रीमद् भागवत में कहतें हैं की
यत्र तत्र मनो देही धारयेत् सकलं धिया,
स्नेहाद् द्वेषाद् भयाद् भयाद् वापि याति तत्तत् स्वरूप ताम्।
व्यक्ति स्नेह, द्वेष एवं भय से प्रेरित होकर अपने मन को, भावना को, बुद्धि द्वारा जहां-तहां ले जाता है। मन वैसा ही आकार धारण कर लेता है। स्नेह से प्रेरित मन स्नेही, भय से भय युक्त और द्वेष से द्वेषी हो जाता है। संसार में जितने कारण बंधन के लिए हैं, उतन

े ही कारण मुक्ति के भी हैं। भावों के कारण ही राग, द्वेष, अमृत, विष आदि द्वैत कोई एक स्वरूप ग्रहण कर लेते हैं। मन को विचारों के जिस रस से भावित किया जाए, वैसी ही भावना बन जाती है। बुद्धि तात्विक परिस्थिति के अनुरूप निश्चित निर्णय पर पहुंचती है। मन प्रत्यक्ष से प्रभावित होकर तत्काल निर्णय कर बैठता है। मन सम्मत कृत्रिम इच्छा जीव की इच्छा है। इसी मन से मानव मर्यादाओं का अतिक्रमण करता है। मनमानी करता है। यहां बुद्धि सम्मत सहज इच्छा को ईश्वरीय कहा गया है। यह मानव को अतिक्रमण नहीं करने देती । इसी को बुद्धिमानी कहते हैं। अविद्या के चार दोष जहां मन को मनमानी करने के प्रवृत्त कर अतिक्रमण के कारण बनते हैं, वहीं विद्या रूपी चार गुण बुद्धि को बल प्रदान करते हुए मनोनियंत्रण के कारण बनते हैं। शब्द ब्रह्म रूपी शास्त्र ज्ञान ही ज्ञान है। इसे न जानना ही अविद्या है। आत्म विकास को ही ऎश्वर्य कहते हैं। संकोच ही अस्मिता है । विकास ही स्मित भाव है। आत्मा में सम्पूर्ण ऎश्वर्य व्याप्त है । किन्तु अस्मिता दोष के कारण व्यक्ति स्वयं को दीन-हीन-द्ररिद्र मानता रहता है । राग-द्वेष सहित ग्रन्थि बन्ध आसक्ति है। स्वरूप स्थिति को धर्म कहा है। इसको विस्मृत कराने वाली हठधर्मिता ही अभिनिवेश है । विद्या से बुद्धि सबल होकर मन का नियंत्रण रखती है। इसके बिना मन अधर्म के प्रवाह में बह जाता है।
प्रभु श्री कृष्ण जी श्रीमद् भागवत में कहतें हैं की
यत्र तत्र मनो देही धारयेत् सकलं धिया,
स्नेहाद् द्वेषाद् भयाद् भयाद् वापि याति तत्तत् स्वरूप ताम्।
व्यक्ति स्नेह, द्वेष एवं भय से प्रेरित होकर अपने मन को, भावना को, बुद्धि द्वारा जहां-तहां ले जाता है। मन वैसा ही आकार धारण कर लेता है। स्नेह से प्रेरित मन स्नेही, भय से भय युक्त और द्वेष से द्वेषी हो जाता है। संसार में जितने कारण बंधन के लिए हैं, उतन

े ही कारण मुक्ति के भी हैं। भावों के कारण ही राग, द्वेष, अमृत, विष आदि द्वैत कोई एक स्वरूप ग्रहण कर लेते हैं। मन को विचारों के जिस रस से भावित किया जाए, वैसी ही भावना बन जाती है। बुद्धि तात्विक परिस्थिति के अनुरूप निश्चित निर्णय पर पहुंचती है। मन प्रत्यक्ष से प्रभावित होकर तत्काल निर्णय कर बैठता है। मन सम्मत कृत्रिम इच्छा जीव की इच्छा है। इसी मन से मानव मर्यादाओं का अतिक्रमण करता है। मनमानी करता है। यहां बुद्धि सम्मत सहज इच्छा को ईश्वरीय कहा गया है। यह मानव को अतिक्रमण नहीं करने देती । इसी को बुद्धिमानी कहते हैं। अविद्या के चार दोष जहां मन को मनमानी करने के प्रवृत्त कर अतिक्रमण के कारण बनते हैं, वहीं विद्या रूपी चार गुण बुद्धि को बल प्रदान करते हुए मनोनियंत्रण के कारण बनते हैं। शब्द ब्रह्म रूपी शास्त्र ज्ञान ही ज्ञान है। इसे न जानना ही अविद्या है। आत्म विकास को ही ऎश्वर्य कहते हैं। संकोच ही अस्मिता है । विकास ही स्मित भाव है। आत्मा में सम्पूर्ण ऎश्वर्य व्याप्त है । किन्तु अस्मिता दोष के कारण व्यक्ति स्वयं को दीन-हीन-द्ररिद्र मानता रहता है । राग-द्वेष सहित ग्रन्थि बन्ध आसक्ति है। स्वरूप स्थिति को धर्म कहा है। इसको विस्मृत कराने वाली हठधर्मिता ही अभिनिवेश है । विद्या से बुद्धि सबल होकर मन का नियंत्रण रखती है। इसके बिना मन अधर्म के प्रवाह में बह जाता है।
इस जग में साधु कौन है? वह मनुष्य, जिसके साथ रहने से तुम्हारी नैतिकता, तुम्हारे पुण्यों का मान बढ़ता है और जो तुम्हें आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ाता है, वह तुम्हारे लिए साधु है। इसलिए तुम्हें अच्छे लोगों के संसर्ग में रहकर 24 घंटों पुण्य कर्म करना चाहिए। अच्छे कर्म तभी संभव हैं, जब तुम समाज की नि:स्वार्थ सेवा और अनवरत मानसाध्यात्मिक सेवा करते चलोगे। तभी पुण्य कर्म संभव है।
हमारे प्राचीन भारतीय आर्यों या हिंदुओं के जीवन की चार आश्रम में से अंतिम आश्रम सन्यास (सांसारिक प्रपंचों के त्याग की वृत्ति , दुनिया के जंजाल से अलग होने की अवस्था या वैराग्य ) है । जो पुत्र आदि के सयाने हो जाने पर ग्रहण की जाती थी । इसमें मनुष्य गृहस्थी छोड़कर जंगल या एकांत स्थान में ब्रह्मचिंतन या परलोकसाधन में प्रवृत्त रहते थे और भिक्षा द्वारा निर्वाह करते थे । इसमें किसी आचार्य से दीक्षा लेकर
सिर मुँड़ाते और दंड ग्रहण करते थे । संन्यास दो प्रकार का कहा गया है—एक सक्रम अर्थात् जो ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य और वानप्रस्थ आश्रम के उपरांत ग्रहण किया जाय; दूसरा अक्रम जो बीच में ही वैराग्य उत्पन्न होनेपर धारण किया जाय । बहुत दिनों तक 'संन्यास' कलिवर्ज्य माना जाता था; पर शंकराचार्य ने बौद्ध भिक्षुओं ओर जैन यतियों को अपने अपने धर्म का प्रचार बढ़ाते देख कलिकाल में फिर संन्यास चलाया और गिरि, पुरी, भारती आदि दस प्रकार के संन्यासियों की प्रतिष्ठा की जो दशनामी कहे जाते हैं ।
शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ मा कुरु यत्नं विग्रहसन्धौ ।
सर्वस्मिन्नपि पश्यात्मानं सर्वत्रोत्सृज भेदाज्ञानम् ।
दूसरे लोगों से लडने में अथवा उनसे मित्रता करने में अपनी शक्ति का अपव्यय न करो। अपने बन्धु-बान्धवों से राग-द्वेष मत रखो। सर्वत्र अपने ही स्वरूप को देखो, भेद बुद्धि का त्याग करो और अज्ञान से छुटकारा पाओ।
प्रातः स्मरणीय श्री गोस्वामी तुलसी दास जी ने श्री राम चरित मानस में लिखा है :-
* कर्म प्रधान विश्व करि राखा , जो जस करा सो तस फल चाखा *
हमें अपने कर्तव्य को समझना होगा। हमें अपने दायित्व को समझना होगा। परिवार , समाज और अपने राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य को निभाना होगा। दुनिया में करने को इतना कुछ है। समाज में व्याप्त ग़रीबी , भुखमरी , बीमारी , भ्रष्टाचार , बेईमानी , चोरी , लूटमार , हिंसा , व्याभिचार के खिलाफ संघर्ष करने का क्या हमारा कर्तव्य नहीं बनता है। मानव मात्र का दुख दूर करना भगवान की सबसे बड़ी सेवा है। भगवान भी अपेक्षा रखते हैं कि जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होनें सृष्टि का निर्माण किया , जिस उदेश्य की पूर्ति के लिए हमें इस धरती पर भेजा , हम उसका निर्वाह करें।
इच्छाशक्तिके कारण 'कुछ करना चाहिए' ऐसी इच्छा उत्पन्न होती है । क्रियाशक्तिके कारण प्रत्यक्ष कृत्य करनेकी प्रेरणा मिलती है ।
यदि मानव द्वारा धर्म के मर्म को जाना एवं समझा जाये तो वह निश्चित रूप से उदार ह्रदय का स्वामी होता है। धर्म एक अनुपम अमृत कुण्ड है। जिसमें एक ही बार पूरे मन से डुबकी लगाने से सारी संकीर्णताएं एवं मलीनताएं सदा-सदा के लिये धुल जाती हैं। दुनिया भर में आज जितनी भी साधनाएं प्रचलित हैं उनका एक और सिर्फ एक मात्र उद्देश्य इंसान को धार्मिक बनाना है। किन्तु धार्मिक होने का वह अर्थ बिल्कुल भी नहीं है जो आजकल
प्रचलित है। धर्म की जो परिभाषा दी जाती है,वह उचित नहीं है । इससे तो धर्म सीमित ही हुआ है। वास्तविकता यह है कि धर्म एक और सिर्फ एक ही होता है। कई सारे धर्म या अलग-अलग धर्म हो ही नहीं सकते। जिस तरह समय एक है, रोशनी एक है ,प्रेम एक है वैसे ही धर्म भी एक ही है। अलग प्रतीक, अलग रिवाज, अलग मान्यताएं तो धर्म भी अलग-अलग होगा ऐसा सोचना यही सिद्ध करता है कि मनुष्य जाति अभी अपने बचपन की अवस्था में है। पहली बात तो यह कि धर्म कभी बनाया नहीं जाता वह तो धरती पर इंसानों के जन्म से पूर्व से ही है और सदैव रहेगा। धर्म के नाम पर जिन नियम कायदों को इंसानों ने बनाया है उससे तो धर्म की हानी ही हुई है। इतिहास इस बात का गवाह है कि धर्म के नाम पर ही सबसे ज्यादा युद्ध, हिंसा, और पाप-अत्याचार हुए हैं। जिस धर्म की नींव दुनियां में प्रेम और भाईचारा बढ़ाने के लिये हुई थी उसके नाम पर दुनिया में क्या-क्या खैल खेले जा रहे है यह किसी से छुपा नहीं है। अत: जो भी अपने को धार्मिक कहने की हिम्मत रखता हो उसे यह जरूर सोचना चाहिये कि क्या वो उसका हकदार भी है।
हमारी भारतीय संस्कृति लघुता से प्रभुता पाने की संस्कृति है। अड़ना और अकड़ना ही जड़ से उखड़ने के कारण हैं। अहंकार एक ऐसा विष वृक्ष है जो बिना बोए ही उग कर आता है और जीवन में रहने वाले सारे के सारे सद्‍गुणों को बर्बाद कर देता है।
* हमारा जीवन तभी बदल जाता है जब हम बदलते हैं। न हो तो करके देखें।
* हमारा मन व मस्तिष्क सबसे बड़ी संपत्ति है, इसे हम मान लेंगे तो खुश रहेंगे ।
* किसी की भी आत्मछवि जो उसने खुद बनाई होती है उसके खुश रहने के लिए बहुत महत्वपूर्ण होती है। हम अपनी छवि ऐसी बनाएं जो हमको हताश-निराश न करके खुशियां दे।
* हम सम्मान करना व क्ष

मा करना सीखें व खुश रहें।
* हम जैसा सोचेंगे वैसे ही बनेंगे । अगर गरीबी के बारे में सोचेंगे तो गरीब रहेंगे और अमीरी के बारे में सोचेंगे और प्रयास करेंगें तो अमीर रहेंगे।
* इस जीवन में असफलता आती और जाती है यह सोचें और खुश रहने की कोशिश करें।
* जितने भी आशीर्वाद हमको मिले हैं आज तक, उनकी गिनती करें, उन्हें याद करके खुश रहें।
* यदि हम पूरे जीवन की खुशी चाहते हैं चाहते हैं तो कर्म से प्यार करना सीखें।
हमें मनुष्यता की प्राप्ति धन , मकान‌ , आभुषण‌ और विद्या से नही होती है ! इसकी प्राप्ति तो आत्मा की स्वच्छ्ता , शुद्धता और ह्रदय की उदारता से होती है ! कार्य भी मनुष्य कुत्सित‌ भावनाओ को रखकर , दुसरे के ऐश्वर्य‌ को लूटकर और किसी की आत्मा को सता कर मानवता को परे धकेल दिया है ! आज ज्यो ज्यो हमारा समाज और राष्ट्र उन्नति के शिखर पर चढ़ता जा रहा है , त्यों त्यों हम मनुष्यता से अपने से दूर करते जा रहे है ! इसकी दूरी से आपस मे वैमनस्यता के अंकुर फूट कर विशाल विष वृक्ष खड़े हो चुके है !
आर्य धर्म है वही जिसे हम कहते धर्म सनातन है ।
युग युग से ही चलता आये शाश्वत बड़ा पुरातन है ।।
वेद, पुराण, शास्त्र, रामायण; उपनिषद में जिसका वर्णन है ।
जो समझ सके कुछ तथ्यों को बस जाता उसका ही मन है ।।
परहित, दया, सत्य, अहिंसा को धर्म-पुण्य बतलाता है ।
परपीड़ा, निंदा, झूठ, हिंसा को अधर्म-पाप बताता है ।।
मानव जीवन का उद्देश्य है क्या सबको यह समझाता है ।
जीवन है क्या राम बिना सबको सदराह दिखाता है ।।
इर्ष्या, स्वार्थ, अहम, क्रोधादिक से जग नेह लगाता है ।
राम बिना आराम कहाँ जग खोजै पर न पाता है ।।
प्रायः हम मन के निर्णय या ज्ञान को अपना समझ बैठते है। जैसा कि आँख, नाक, कान, जिव्हा व स्पर्श इन्द्रिय की सीमा है। वे भी अपनी सीमा से बाहर अनुभव नहीं कर पाते है। वैसे ही मन भी अपनी सीमा से बाहर जाकर अनुभव नहीं कर सकता है। जबकि सत्य इसके पार होता है तभी चेतना के अनुभव पर उपनिषद् के ऋषियों ने नेति-नेति की बात कहीं है। मन के इसी स्वभाव के कारण हमारे जीवन में हर चीज भली-बुरी थोड़े समय में समस्या बन जाती है। हम किसी भी सम्बन्ध, घटना, वस्तु, व्यक्ति से सुख उठाते-उठाते अचानक दुःख पाने लग जाते है। हमारी प्राप्ति कब व्यर्थ हो जाती है हमें पता ही नहीं लगता है। मन हमारा दुश्मन नहीं है। यह चेतन ने ही बनाया है। आकार से उपर उठने, निराकार को जानने मन के पार जाना पड़ता है। हम अपनी मन की आंख से संसार देखते है। अर्थात् ‘‘जो है’’ कि बजाय ‘‘जो नहीं है’’ वह स्व-निर्माण कर देखता है। अर्थात् हम अपना ही प्रक्षेपण करते है। अपनी बुद्धि व स्वार्थ से देखते है। इस अर्थ में हम अन्धे हो जाते है। अपने भीतर उठते विचार, भाव व शब्दीकरण को सतत देखो। दो विचारों, के बीच पड़ते अन्तराल को देखो। इसी तरह साक्षी भाव बढ़ेगा, मन मिटेगा।

Saturday, September 8, 2012

हिंदू संत

हमारे हिंदू संन्यास की कुछ पद्धतियाँ है। इन पद्धतियों के सम्प्रदायों में ‍दीक्षित व्यक्ति को ही हिंदुओं का संत माना जाता है। इस संन्यास परम्परा से जो बाहर है वे संत जरूर हो सकते हैं, लेकिन हिंदू संत नहीं।
हिंदू संत समाज तीन भागों में विभाजित है और इस विभाजन का कारण आस्था और साधना पद्धतियाँ हैं, लेकिन तीनों ही सम्प्रदाय वेद और वेदांत पर एकमत है। यह तीन सम्प्रदाय है- १. वैष्णव २..शैव और ३.स्मृति। वैष्णवों के अंतर्गत अनेक उप संप्रदाय है जैसे वल्लभ, रामानंद आदि। शैव के अंतर्गत भी कई उप संप्रदाय हैं जैसे दसनामी, नाथ, शाक्त आदि। शैव संप्रदाय से जगद्‍गुरु पद पर विराजमान करते समय शंकराचार्य और वैष्वणव मत पर विराजमान करते समय रामानंदाचार्य की पदवी दी जाती है। हालाँकि उक्त पदवियों से पूर्व अन्य पदवियाँ प्रचलन में थी।
* शैव संप्रदाय :
शिव को मानने वाले शैव संप्रदाय वाले हैं। शैव परंपरा के अनेक संप्रदाय हैं। इनमें शैव, पाशुपत, वीरशैव, कालामुख, कापालिक, काश्मीर शैव मत तथा दक्षिणी मत और दसनामी अधिक प्रसिद्ध हैं। शाक्त और नाथ संप्रदाय भी शैव संप्रदाय का ही अंग है। सभी में दसनामी संप्रदाय ही अधिक प्रचलित और प्रसिद्ध है। शाक्त और नाथ संप्रदाय की उत्पत्ति तो शैव और वैष्णव संप्रदाय में समन्वय की भावना से हुई थी।
* दसनामी संप्रदाय :
हिंदू संन्यास की दसनामी पद्धतियों में से किसी एक पद्धति में हिंदू व्यक्ति जब संन्यास लेता है तो उसको नया नाम दिया जाता है। नए नाम के आगे स्वामी और नाम के साथ आनंद जुड़ा होता है अंत में जिस भी पद्धति से संन्यास लिया है उसका नाम होता है। जैसे कि स्वामी अवधेशानंद गिरि- इसमें 'स्वामी' स्वयं के मालिक होने का सूचक है जो सभी दसनामी संतों के नाम के पूर्व जोड़ा जाता है अवधेशानंद में से 'अवधेश' व्यक्ति को दिया गया नाम है जिसमें 'आनंद' जोड़ा जाता है जोकि सभी संतों के नाम के बाद जोड़ा जाता है। अंत में 'गिरि' दसनामी सम्प्रदायों में से एक संप्रदाय का नाम है।
इसी तरह नाथ शब्द का उपयोग भी वही कर सकता है जो कि हिंदू संन्यास पद्धति से दीक्षित हुआ है। अन्य किसी को भी इन शब्दों का इस्तेमाल करने का अधिकार नहीं है, लेकिन मनमानी स्वतंत्रता और राजनीतिज्ञ संवरक्षण के चलते हर कोई स्वामी, आचार्य और आनंद शब्द का इस्तेमाल कर लेता है। जो जानकार है वे जानबूझ कर भी उक्त शब्दों का इस्तेमाल नहीं करते, लेकिन जिसे हिंदू धर्म की परवाह नहीं है वे ही ऐसा करते हैं।
*संत नाम विशेषण और प्रत्यय : परमहंस, महर्षि, ऋषि, स्वामी, आचार्य, महंत, संन्यासी, नाथ और आनंद आदि।
*दसनामी संप्रदाय : गिरि, पर्वत, सागर, पुरी, भारती, सरस्वती, वन, अरण्य, तीर्थ और आश्रम।
*दसनामी पद्धति :
शंकराचार्य से सन्यासियों के दसनामी सम्प्रदाय का प्रचलन हुआ। इनके चार प्रमुख शिष्य थे और उन चारों के कुल मिलाकर दस शिष्य हए। इन दसों के नाम से सन्यासियों की दस पद्धतियाँ विकसित हुई। यह भारत के दस भाग का हिस्सा भी है। शंकराचार्य ने चार मठ स्थापित किए थे जो दस क्षेत्रों में बँटें थे जिनके एक एक मठाधीश थे।
दसनामी व्यक्तित्व : दसनामी सम्प्रदाय के साधु प्रायः गेरुआ वस्त्र पहनते, एक भुजवाली लाठी रखते और गले में चौवन रुद्राक्षों की माला पहनते हैं। हर सुबह वे ललाट पर राख से तीन या दो क्षैतिज रेखाएँ बना लेते। तीन रेखाएँ शिव के त्रिशूल का प्रतीक होती है, दो रेखाओं के साथ एक बिन्दी ऊपर या नीचे बनाते, जो शिवलिंग का प्रतीक होती है। इनमें निर्वस्त्रधारियों को नगा बाबा कहते हैं। दसनामी संत 'नमो नारायण' या 'नम: शिवाय' से शिव की आराधना करते हैं।
नाथ सम्प्रदाय : प्राचीन काल से चले आ रहे नाथ संप्रदाय को गुरु मच्छेंद्र नाथ और उनके शिष्य गोरख नाथ ने पहली दफे व्यवस्था दी। गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। गुरु और शिष्य को तिब्बती बौद्ध धर्म में महासिद्धों के रुप में जाना जाता है। इन्हीं से आगे चलकर चौरासी और नवनाथ माने गए जो निम्न हैं:-
नाथ व्यक्ति : परिव्रराजक का अर्थ होता है घुमक्कड़। नाथ साधु-संत दुनिया भर में भ्रमण करने के बाद उम्र के अंतिम चरण में किसी एक स्थान पर रुककर अखंड धूनी रमाते हैं या फिर हिमालय में खो जाते हैं। हाथ में चिमटा, कमंडल, कान में कुंडल, कमर में कमरबंध, जटाधारी धूनी रमाकर ध्यान करने वाले नाथ योगियों को ही अवधूत या सिद्ध कहा जाता है। ये योगी अपने गले में काली ऊन का एक जनेऊ रखते हैं जिसे 'सिले' कहते हैं। गले में एक सींग की नादी रखते हैं। इन दोनों को 'सींगी सेली' कहते हैं।
इस पंथ के साधक लोग सात्विक भाव से शिव की भक्ति में लीन रहते हैं। नाथ लोग अलख (अलक्ष) शब्द से शिव का ध्यान करते हैं। परस्पर 'आदेश' या आदीश शब्द से अभिवादन करते हैं। अलख और आदेश शब्द का अर्थ प्रणव या परम पुरुष होता है। जो नागा (दिगम्बर) है वे भभूतीधारी भी उक्त सम्प्रदाय से ही है, इन्हें हिंदी प्रांत में बाबाजी या गोसाई समाज का माना जाता है। इन्हें बैरागी, उदासी या वनवासी आदि सम्प्रदाय का भी माना जाता है। नाथ साधु-संत हठयोग पर विशेष बल देते है।

गीता श्लोक

::: गीता श्लोक :::
नत्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव नभविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ।।

न नहीं तु किन्तु एव निश्चित तौर पर अहम् मैं जातु किसी भी समय न असं नहीं थे / अस्तित्व में थे न नहीं त्वम तुम न नहीं इमे ये सब जनाधिपाः राजा जन न नहीं च भी एव निश्चित तौर पर न नहीं भविष्यामः भविष्य में सर्वे वयम हम सब अतः परम इस काल के पश्चात ।
(श्री कृष्ण आगे अर्जुन से बोले – )
निश्चित ही पूर्व में ऐसा कोई काल नहीं था जब तू नहीं था, या मैं नहीं था या ये सब राजागण नहीं थे । न ही आगे ऐसा कोई काल होगा जब हम सब नहीं होंगे ।

यह श्लोक यह कहता है कि जो भी है – सब स्थायी है – सिर्फ रूप बदलते हैं । विज्ञान भी कहता है – बाह्य रूप में बदलाव आ सकता है – परन्तु न तो नया कुछ बन सकता है – न ही विनष्ट हो सकता है । हम सभी जीव समय के भी पूर्व से हैं – और समय चक्र के आगे भी होंगे । किस रूप में होंगे ? हम में से कोई नहीं जानता ।

यह कृष्ण इसलिए कह रहे हैं कि अर्जुन घोर विषाद में है । वह अपने पितामह भीष्म और गुरु द्रोण आदि की संभावित मृत्यु (बल्कि शायद स्वयं अपने ही हाथ से मृत्यु ) से भयभीत है – कि वे सब न होंगे – तो मैं जीत कर भी क्या करूंगा । कृष्ण कह रहे हैं कि यह संभव ही नहीं कि ये नहीं होंगे – क्योंकि कुछ भी विनष्ट हो ही नहीं सकता है ।

स्‍वर्गवास

कि‍सी के मरने पर यह क्‍यों कहा जाता है कि उसका स्‍वर्गवास हो गया ?

संस्‍कृत में स्‍व: का अर्थ आत्‍मा होता है तथा ग का अर्थ होता है जाने वाला, ठहरने वाला या शेष रहने वाला. जब शरीर का अवसान होता है तो आत्‍मा आत्‍मलोक में ही वास करता है. इसलि‍ए मरने पर कि‍सी के लि‍ए कहा जाता है कि उसका देहावसान या स्‍वर्गवास हो गया. यहॉं स्‍वर्ग का तात्‍पर्य आत्‍मा के ठहरने के लोक से है. स्‍थान न घेरने के कारण इसका भौति‍क अस्‍ति‍त्‍व नहीं है.

मूर्ति पूजा

मूर्ति रूपी पत्थर, मिट्टी, धातु या चित्र इत्यादि की प्रतिमा को माध्यस्थ बनाकर हम सर्वव्यापी अनन्त शक्तियों और गुणों से सम्पन्न परमात्मा को अपने सम्मुख उपस्थित देखते हैं । निराकार ब्रह्म का मानस चित्र निर्माण करना कष्टसाध्य है । बड़े योगी, विचारक, तत्ववेत्ता सम्भव है यह कठिन कार्य कर दिखायें,किन्तु साधारण जन के जिए तो वह नितांत असम्भव सा है । भावुक भक्तों, विशेषतः नारी उपासको के लिए किसी प्रकार की मूर्ति का आधार रहने से उपासना में बड़ी सहायता मिलती है । मानस चिन्तन और एकताग्रता की सुविधा को ध्यान में रखते हुए प्रतीक रूप में मूर्ति-पूजा की योजना बनी है । साधक अपनी श्रद्धा के अनुसार भगवान की कोई भी मूर्ति चुन लेता है और साधना अन्तःचेतना ऐसा अनुभव करती है मानो साक्षात् भगवान से हमारा मिलन हो रहा है ।
मनीषियों का यह कथन सत्य हे कि इस प्रकार की मूर्ति-पूजा में भावना प्रधान और प्रतिमा गौण है, तो भी प्रतिमा को ही यह श्रेय देना पड़ेगा कि वह भगवान की भावनाओं का उदे्रक और संचार विशेष रूप से हमारे अन्तःकरण में करती है । यों कोई चाहे, तो चाहे जब जहाँ भगवान को स्मरण कर सकता है, पर मन्दिर में जाकर प्रभु-प्रतिमा के सम्मुख अनायास ही जो आनंद प्राप्त होता है, वह बिना मन्दिर में जाये, चाहे, जब कठिनता से ही प्राप्त होगा । गंगा-तट पर बैठकर ईश्वरीय शक्तियों का जो चमत्कार मन में उत्पन्न होता है, वह अन्यत्र मुश्किल से ही हो सकता है ।

धर्मनिरपेक्ष


क्या आप धर्मनिरपेक्ष हैं ? जरा फ़िर सोचिये और स्वयं के लिये इन प्रश्नों के उत्तर खोजिये.....
१. विश्व में लगभग ५२ मुस्लिम देश हैं, एक मुस्लिम देश का नाम बताईये जो हज के लिये "सब्सिडी" देता हो ?
२. एक मुस्लिम देश बताईये जहाँ हिन्दुओं के लिये विशेष कानून हैं, जैसे कि भारत में मुसलमानों के लिये हैं ?
३. किसी एक देश का नाम बताईये, जहाँ ८५% बहुसंख्यकों को "याचना" करनी पडती है, १५% अल्पसंख्यकों को संतुष्ट करने के लिये ?
४. एक मुस्लिम देश का नाम बताईये, जहाँ का राष्ट्रपति या प्रधानमन्त्री गैर-मुस्लिम हो ?
५. किसी "मुल्ला" या "मौलवी" का नाम बताईये, जिसने आतंकवादियों के खिलाफ़ फ़तवा जारी किया हो ?
६. महाराष्ट्र, बिहार, केरल जैसे हिन्दू बहुल राज्यों में मुस्लिम मुख्यमन्त्री हो चुके हैं, क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि मुस्लिम बहुल राज्य "कश्मीर" में कोई हिन्दू मुख्यमन्त्री हो सकता है ?
७. १९४७ में आजादी के दौरान पाकिस्तान में हिन्दू जनसंख्या 24% थी, अब वह घटकर 1% रह गई है, उसी समय तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (अब आज का अहसानफ़रामोश बांग्लादेश) में हिन्दू जनसंख्या 30% थी जो अब 7% से भी कम हो गई है । क्या हुआ गुमशुदा हिन्दुओं का ? क्या वहाँ (और यहाँ भी) हिन्दुओं के कोई मानवाधिकार हैं ?
८. जबकि इस दौरान भारत में मुस्लिम जनसंख्या 10.4% से बढकर 14.2% हो गई है, क्या वाकई हिन्दू कट्टरवादी हैं ?
९. यदि हिन्दू असहिष्णु हैं तो कैसे हमारे यहाँ मुस्लिम सडकों पर नमाज पढते रहते हैं, लाऊडस्पीकर पर दिन भर चिल्लाते रहते हैं कि "अल्लाह के सिवाय और कोई शक्ति नहीं है" ?
१०. सोमनाथ मन्दिर के जीर्णोद्धार के लिये देश के पैसे का दुरुपयोग नहीं होना चाहिये ऐसा गाँधीजी ने कहा था, लेकिन 1948 में ही दिल्ली की मस्जिदों को सरकारी मदद से बनवाने के लिये उन्होंने नेहरू और पटेल पर दबाव बनाया, क्यों ?
११. कश्मीर, नागालैण्ड, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय आदि में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं, क्या उन्हें कोई विशेष सुविधा मिलती है ?
१२. हज करने के लिये सबसिडी मिलती है, जबकि मानसरोवर और अमरनाथ जाने पर टैक्स देना पड़ता है, क्यों ?
१३. मदरसे और क्रिश्चियन स्कूल अपने-अपने स्कूलों में बाईबल और कुरान पढा सकते हैं, तो फ़िर सरस्वती शिशु मन्दिरों में और बाकी स्कूलों में गीता और रामायण क्यों नहीं पढाई जा सकती ?
१४. गोधरा के बाद मीडिया में जो हंगामा बरपा, वैसा हंगामा कश्मीर के चार लाख हिन्दुओं की मौत और पलायन पर क्यों नहीं होता ?