Saturday, September 29, 2012

शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ मा कुरु यत्नं विग्रहसन्धौ ।
सर्वस्मिन्नपि पश्यात्मानं सर्वत्रोत्सृज भेदाज्ञानम् ।
दूसरे लोगों से लडने में अथवा उनसे मित्रता करने में अपनी शक्ति का अपव्यय न करो। अपने बन्धु-बान्धवों से राग-द्वेष मत रखो। सर्वत्र अपने ही स्वरूप को देखो, भेद बुद्धि का त्याग करो और अज्ञान से छुटकारा पाओ।

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