Saturday, September 29, 2012

प्रभु श्री कृष्ण जी श्रीमद् भागवत में कहतें हैं की
यत्र तत्र मनो देही धारयेत् सकलं धिया,
स्नेहाद् द्वेषाद् भयाद् भयाद् वापि याति तत्तत् स्वरूप ताम्।
व्यक्ति स्नेह, द्वेष एवं भय से प्रेरित होकर अपने मन को, भावना को, बुद्धि द्वारा जहां-तहां ले जाता है। मन वैसा ही आकार धारण कर लेता है। स्नेह से प्रेरित मन स्नेही, भय से भय युक्त और द्वेष से द्वेषी हो जाता है। संसार में जितने कारण बंधन के लिए हैं, उतन

े ही कारण मुक्ति के भी हैं। भावों के कारण ही राग, द्वेष, अमृत, विष आदि द्वैत कोई एक स्वरूप ग्रहण कर लेते हैं। मन को विचारों के जिस रस से भावित किया जाए, वैसी ही भावना बन जाती है। बुद्धि तात्विक परिस्थिति के अनुरूप निश्चित निर्णय पर पहुंचती है। मन प्रत्यक्ष से प्रभावित होकर तत्काल निर्णय कर बैठता है। मन सम्मत कृत्रिम इच्छा जीव की इच्छा है। इसी मन से मानव मर्यादाओं का अतिक्रमण करता है। मनमानी करता है। यहां बुद्धि सम्मत सहज इच्छा को ईश्वरीय कहा गया है। यह मानव को अतिक्रमण नहीं करने देती । इसी को बुद्धिमानी कहते हैं। अविद्या के चार दोष जहां मन को मनमानी करने के प्रवृत्त कर अतिक्रमण के कारण बनते हैं, वहीं विद्या रूपी चार गुण बुद्धि को बल प्रदान करते हुए मनोनियंत्रण के कारण बनते हैं। शब्द ब्रह्म रूपी शास्त्र ज्ञान ही ज्ञान है। इसे न जानना ही अविद्या है। आत्म विकास को ही ऎश्वर्य कहते हैं। संकोच ही अस्मिता है । विकास ही स्मित भाव है। आत्मा में सम्पूर्ण ऎश्वर्य व्याप्त है । किन्तु अस्मिता दोष के कारण व्यक्ति स्वयं को दीन-हीन-द्ररिद्र मानता रहता है । राग-द्वेष सहित ग्रन्थि बन्ध आसक्ति है। स्वरूप स्थिति को धर्म कहा है। इसको विस्मृत कराने वाली हठधर्मिता ही अभिनिवेश है । विद्या से बुद्धि सबल होकर मन का नियंत्रण रखती है। इसके बिना मन अधर्म के प्रवाह में बह जाता है।

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