Saturday, September 29, 2012

हमारे सनातन धर्म में चार ऋणों की परिकल्पना है :-
१. ऋषि ऋण
२. पितृ ऋण
३. देव ऋण
४. भूत ऋण
ऋषि ऋण ब्रहमचर्य आश्रम और ब्राहमण के धर्म - स्वाध्याय से उतरता है।
पितृ ऋण गृहस्थ आश्रम और क्षत्रिय के सर्वपालक कार्य से उतरता है।
देवऋण बानप्रस्थ आश्रम और विनियम - प्रधान वैश्य के कार्य से उतरता है। देवता की उपासना में एक - दूसरे को उपकृत करने की भावना रहती है। यज्ञ और उपासना के द्वारा मनुष्य देवता को भावित

करता है उसी के द्वारा देवता भी मनुष्य को भावित करते हैं।
चौथे वर्ण, चौथे आश्रम और चौथे ऋण की परिकल्पना एक उत्तरवर्ती विकास है। तीन को अतिक्रमण करने वाले वर्ण, आश्रम और ऋण की अवधारणा वैदिक यज्ञ - संस्था के पूर्ण विकास के अनन्तर हुई। वर्णों में शूद्र को स्थान, आश्रमों में संन्यास को स्थान और ऋणों में भूतऋण या मनुष्य ऋण को स्थान देना एक सर्वग्राही व्यापक और आध्यात्मिक चिन्तन के उत्कर्ष के परिणामस्वरूप हुआ। भूतऋण या मनुष्य ऋण केवल अपने पिता का ऋण नही, केवल अपने देवता का ऋण नहीं, केवल अपनी ज्ञान - परम्परा का ऋण नहीं, बल्कि समस्त मनुष्य जाति और समस्त प्राणियों का ऋण है। उससे निस्तार पाने के लिए आदमी को निर्वर्ण हो जाना पड़ता है तथा उसे अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विलय कर देना पड़ता है- वह एक प्रकार से शूद्र हो जाता है और उसका जीवन केवल दूसरों के लिए ही शेष रह जाता है तभी वह परब्रहम के साथ जुड़ जाता है। इस प्रकार सनातन धर्म में सारा जीवन ऋणों से निस्तार पाने का प्रयत्न है और इसका अन्तिम भाव सेवाधर्म के द्वारा मनुष्य ऋण से विस्तार के लिए सुरक्षित है।

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