Sunday, September 30, 2012

पितृपक्ष में अपने पितरो का तर्पण

आयुः पुत्रान्‌ यशः स्वर्ग कीर्ति पुष्टि बलं यिम्‌। 

पशून्‌ सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात्‌ पितृपूजनात्‌।

सनातन धर्म की मान्यता है कि आश्विन मास के कृष्णपक्ष में यमराज सभी पितरों को अपने यहां से छोड़ देते हैं, ताकि वे अपनी संतान से श्राद्ध के निमित्त भोजन कर सकें ।  इस माह में श्राद्ध न करने वालों के अतृप्त पितर उन्हें श्राप देकर पितृलोक चले जाते हैं और आने वाली पीढ़ियों को भारी कष्ट उठाना पड़ता है
 गरुड़ पुराण में कहा गया है कि आयु: पुत्रान यश: स्वर्ग कीर्ति पु‌ष्टि बलं श्रियम्, पशून सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृजूननात अर्थात श्राद्ध कर्म करने से संतुष्ट होकर पितर मनुष्यों के लिए आयु, पुत्र, यश, मोक्ष, स्वर्ग कीर्ति, पुष्टि, बल, वैभव, पशुधन, सुख, धन व धान्य वृद्धि का आशीष प्रदान करते हैं
यमस्मृति में लिखा है कि पिता, दादा, परदादा तीनों श्राद्ध की ऐसे आशा रखते हैं जैसे वृक्ष पर रहते हुए पक्षी वृक्षों में लगने वाले फलों की. ब्राह्मण को पृथ्वी का भूदेव कहा गया है उसकी जठराग्नि कव्य को पितरों तक पहुंचाने का कार्य करती है पितृ जिस योनि में हों उसी रूप में अन्न उन्हें मिल जाता है इसलिए ब्राह्मण को भोजन कराने व दक्षिणा देकर संतुष्ट करने का भी विधान है
हम आज इस सुन्दर दुनिया में जिस माता, पिता, दादा, दादी, प्रपितामह, मातामही एवं अन्य बुजुर्गो के लाड, प्यार, श्रम से कमाए धन एवं इज्ज़त के सहारे  सुख पूर्वक विचरण कर रहे है । आज जब उनका पांच भौतिक शरीर पांच तत्त्व में विलीन हो गया है तो हमारा यह परम कर्त्तव्य बनता है कि अपने पितरो के उन पांचो तत्वों के संतुलित समन्वय के लिए निर्दिष्ट एवं अपेक्षित भूमिका निभाएं तथा कम से कम और कुछ नहीं कर सकते तो तर्पण तो कर दें ।
इस दृश्य संसार में स्थूल शरीर वाले को जिस प्रकार इन्द्रिय भोग, वासना, तृष्णा एवं अहंकार की पूर्ति में सुख मिलता है, उसी प्रकार पितरों का सूक्ष्म शरीर शुभ कर्म से उत्पन्न सुगन्ध का रसास्वादन करते हुए तृप्ति का अनुभव करता है। उसकी प्रसन्नता तथा आकांक्षा का केन्द्र बिन्दु श्रद्धा है। श्रद्धा भरे वातावरण के सान्निध्य में पितर अपनी अशान्ति खोकर आनन्द का अनुभव करते हैं, श्रद्धा ही इनकी भूख है, इसी से उन्हें तृप्ति होती है। इसलिए पितरों की प्रसन्नता के लिए श्रद्धा एवं तर्पण किये जाते हैं। इन क्रियाओं का विधि-विधान इतना सरल एवं इतने कम खर्च का है कि निधर्न से निधर्न व्यक्ति भी उसे आसानी से सम्पन्न कर सकता है। तर्पण में प्रधानतया जल का ही प्रयोग होता है। उसे थोड़ा सुगंधित एवं परिपुष्ट बनाने के लिए जौ, तिल, चावल, दूध, फूल जैसी दो-चार मांगलिक वस्तुएँ डाली जाती हैं। कुशाओं के सहारे जौ की छोटी-सी अंजलि मन्त्रोच्चारपूवर्क डालने मात्र से पितर तृप्त हो जाते हैं, किन्तु इस क्रिया के साथ आवश्यक श्रद्धा, कृतज्ञता, सद्भावना, प्रेम, शुभकामना का समन्वय अवश्य होना चाहिए।
पितृ-कर्मो के करने वाले यह ध्यान रखें कि इन छोटे-छोटे क्रिया-कृत्यों को करने के साथ-साथ दिवंगत आत्माओं के उपकारों का स्मरण करें, उनके सद्गुणों तथा सत्कर्मो के प्रति श्रद्धा व्यक्त करें। कृतज्ञता तथा सम्मान की भावना उनके प्रति रखें और यह अनुभव करें कि यह जलांजलि जैसे अकिंचन उपकरणों के साथ, अपनी श्रद्धा की अभिव्यक्ति करते हुए स्वगीर्य आत्माओं के चरणों पर अपनी सद्भावना के पुष्प चढ़ा रहा हूँ। इस प्रकार की भावनाएँ जितनी ही प्रबल होंगी, पितरों को उतनी ही अधिक तृप्ति मिलेगी। जिस पितर का स्वगर्वास हुआ है, उसके किये हुए उपकारों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना, उसके अधूरे छोड़े हुए पारिवारिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्व को पूरा करने में तत्पर होना तथा अपने व्यक्तित्व एवं वातावरण को मंगलमय ढाँचे में ढालना मरणोत्तर संस्कार का प्रधान प्रयोजन है।
धर्मशास्त्रोक्त सभी ग्रंथों के अनुसार तर्पण का जल सूर्योदय से आधे प्रहर तक अमृत, एक प्रहर तक मधु, डेढ़ प्रहर तक दुग्ध, साढ़े तीन प्रहर तक जल रूप से पितृ को प्राप्त होता है। श्राद्ध में तिल और कुशा सहित जल हाथ में लेकर पितृ तीर्थ यानी अंगूठे की ओर से धरती में छोड़ने से पितर को तृप्ति मिलती है। महर्षि पुलस्त्य के अनुसार जिस कर्मविशेष में दूध, घृत और मधु से युक्त अच्छी प्रकार से पके हुए पकवान श्रद्धापूर्वक पितृ के उद्देश्य से गौ, ब्राह्मण आदि को दिए जाते हैं वही श्राद्ध है। अतः जो लोग विधिपूर्वक शांत मन होकर श्राद्ध करते हैं वह सभी पापों से रहित होकर मोक्ष को प्राप्त होते हैं। उनका संसार में चक्र छूट जाता है।
राद्धपक्ष में पितर देवता की तरह पूजे जाते हैं और देवता भी जिस तरह भक्त की भावना से प्रसन्न होते हैं, ठीक उसी तरह से पूर्वज अपने वंशजों की भावनाओं से खुश होकर खुशहाली का आशीर्वाद देते हैं।
यथासंभव तर्पण का काम किसी ज्ञानी व विद्वान ब्राह्मण से कराया जाना श्रेष्ठ होता है। किंतु श्राद्ध करने वाले को भी तर्पण के वक्त कुछ बातों का ख्याल रख तर्पण करना चाहिए -
- तर्पण जल में खड़े होकर ही करना चाहिए। इसके विपरीत करने से निरर्थक माना जाता है।
- साधारण या नित्य तर्पण दोनों हाथों से करना चाहिए, किंतु श्राद्ध में तर्पण केवल दाहिने हाथ से करना चाहिए।
- श्राद्ध मे तिल-तर्पण का महत्व है। तिल से तर्पण खुले हाथ से करना चाहिए। तिलों को रोओं में या हाथ में लगे नहीं रहना चाहिए।
- स्नान-तर्पण, ग्रहण, महालय यानी श्राद्धपक्ष, तीर्थ-विशेष में तो तिल से तर्पण का कोई निषेध नहीं है, लेकिन तर्पण के लिए शुक्रवार, रविवार, संक्रांति में तिल का तर्पण निषेध है।
जो व्यक्ति पितृपक्ष के पंद्रह दिनों तक श्राद्ध तर्पण आदि नहीं कहते हैं वे अमावस्या को ही अपने पितृ के निमित्त श्राद्धादि संपन्न करते हैं। जिन पितृ की तिथि याद नहीं हो, उनके निमित्त श्राद्ध तर्पण, दान आदि इसी अमावस्या को किया जाता है। 


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