Saturday, September 29, 2012

प्रायः हम मन के निर्णय या ज्ञान को अपना समझ बैठते है। जैसा कि आँख, नाक, कान, जिव्हा व स्पर्श इन्द्रिय की सीमा है। वे भी अपनी सीमा से बाहर अनुभव नहीं कर पाते है। वैसे ही मन भी अपनी सीमा से बाहर जाकर अनुभव नहीं कर सकता है। जबकि सत्य इसके पार होता है तभी चेतना के अनुभव पर उपनिषद् के ऋषियों ने नेति-नेति की बात कहीं है। मन के इसी स्वभाव के कारण हमारे जीवन में हर चीज भली-बुरी थोड़े समय में समस्या बन जाती है। हम किसी भी सम्बन्ध, घटना, वस्तु, व्यक्ति से सुख उठाते-उठाते अचानक दुःख पाने लग जाते है। हमारी प्राप्ति कब व्यर्थ हो जाती है हमें पता ही नहीं लगता है। मन हमारा दुश्मन नहीं है। यह चेतन ने ही बनाया है। आकार से उपर उठने, निराकार को जानने मन के पार जाना पड़ता है। हम अपनी मन की आंख से संसार देखते है। अर्थात् ‘‘जो है’’ कि बजाय ‘‘जो नहीं है’’ वह स्व-निर्माण कर देखता है। अर्थात् हम अपना ही प्रक्षेपण करते है। अपनी बुद्धि व स्वार्थ से देखते है। इस अर्थ में हम अन्धे हो जाते है। अपने भीतर उठते विचार, भाव व शब्दीकरण को सतत देखो। दो विचारों, के बीच पड़ते अन्तराल को देखो। इसी तरह साक्षी भाव बढ़ेगा, मन मिटेगा।

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