Sunday, December 8, 2013

जल का अस्थाई रूप बर्फ है, बर्फ जल में परिणित होती ही है। जल भी अस्थाई रूप है, वह भाप बनता है। रूप बदला करते हैं, अरूप जस का तस रहता है। रूप देखा जाता है, अरूप का दर्शन होता है। जाहिर है कि दर्शन का मतलब सिर्फ देखना नहीं होता। दर्शन आत्मिक अनुभूति है।
शौच (Purity) का अर्थ मलिनता को बाहर निकालना भी है। यह दो प्रकार के होते हैं- बाह्य और आभ्यन्तर। बाह्य का अर्थ बाहरी शारीरिक शुद्धि से है और आभ्यन्तर का अर्थ आंतरिक अर्थात मन वचन और कर्म की शुद्धि से है। जब व्यक्ति शरीर, मन, वचन और कर्म से शुद्ध रहता है तब उसे स्वास्थ्‍य और सकारात्मक ऊर्जा का लाभ मिलना शुरू हो जाता है। ईर्ष्या, द्वेष, तृष्णा, अभिमान, कुविचार और पंच क्लेश को छोड़ने से दया, क्षमा, नम्रता, स्नेह, मधुर भाषण तथा त्याग का जन्म होता है। इससे मन और शरीर में जाग्रति का जन्म होता है। विचारों में सकारात्मकता बढ़कर उसके असर की क्षमता बढ़ती है।
जब भी समय मिले मौन हो जाओ । मन को शां‍त करने के लिए मौन से अच्छा और कोई दूसरा रास्ता नहीं । जब भी मौन रहें एवं इस दौरान सिर्फ श्वासों के आवागमन को ही महसूस करते हुए उसका आनंद लें। अपने श्वासों के आवागमन पर ध्यान लगाए रखें और सामने जो भी दिखाई या सुनाई दे रहा है उसे उसी तरह देंखे जैसे कोई शेर सिंहावलोकन करता है। पिछले कई वर्षों से जो व्यर्थ की बहस करते रहे हों। वही बातें बार-बार सोचते और दोहराता रहते हो जो कई वर्षों के क्रम में सोचते और दोहराते रहे। क्या मिला उन बहसों से और सोच के अंतहिन दोहराव से ? मानसिक ताप, चिंता और ब्लड प्रेशर की शिकायत या डॉयबिटीज का डाँवाडोल होना। अतः 'मन को मौत' की सजा दो ।
शास्त्र कहता है की 'सत्यम वद, धर्मं चर' सत्य बोलो और धर्म का आचरण करो। 'सत्यम ब्रूयात, प्रियं ब्रूयात, मा ब्रूयात सत्यम अप्रियम' सत्य बोलो और प्रिय बोलो। अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिए। सत्य बोलना सबसे आसान कार्य है क्योंकि जैसे एक झूठ को छिपाने के लिए सौ झूठ बोलना पड़ता है वैसा सत्य बोलने में नहीं है।
किन्तु सत्य की पहचान करने में बहुत सावधानी की आवश्यकता होती है। वास्तविकता में देखा जाए तो जीवन संघर्ष में विजय और पराजय का सत्य और असत्य से कोई लेना-देना नहीं है। विजय तो हर तरीके से शक्तिशाली/ताकतवर, समर्थ की ही होती है। महान वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन का विकासवाद का सिद्धांत ' Survival of the fittest and strongest ', ही लागू होता है। संस्कृत में कहा गया है 'वीर भोग्या वसुंधरा' (Only brave will inherit the earth)'। जय और पराजय को सत्य और असत्य के तराजू में नहीं तौलना चाहिए।
जैसे साधू पुरुष सभी प्रकार का कष्टमय जीवन सहन कर सकता है, विद्वान पुरुष अनुकूल परिस्थितियों की प्रतीक्षा किये बिना अपना कार्य कर सकता है , नृशंस व्यक्ति कोई भी पाप कर सकता है वैसे ही एक भक्त भगवान को प्रसन्न करने के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर सकता है ।
सुख एवं दुःख प्रकृति रूपी भूमि पर खड़े हुए भौतिक जगत रूपी में अवस्थित वृक्ष के दो फल हैं और इस वृक्ष में दो पक्षी का भी निवास है जिनका नाम है परमात्मा (अन्तर्यामी भगवान) और जीव । जीव इस भौतिक जगत के सुख दुःख रूपी फलों को खा रहा है तथा दूसरा केवल साक्षी भाव से देख रहा है । विस्तार में यह वृक्ष ही हमारा शरीर है और इसकी जड़े जो तीनों दिशाओं में फैली है जो तिन प्रकृति के सतो , रजो एवं तमो गुणों को दर्शाती है । वृक्ष के फल के चार स्वाद क्रमशः धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष है एवं विभिन्न प्रकार के संसर्ग में इनका अलग अलग स्वाद लेता है । इन भौतिक फलों का स्वाद पञ्च इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किया जाता है , वृक्ष रूपी शरीर सात कोशों से ढका है । इस वृक्ष के आठ शाखाएं हैं और दस द्वार एवं दस प्रकार के आतंरिक वायु रूपी प्राण है ।
॥ ॐ श्री परमात्माने नमः ॥ आप सब का कल्याण हो ॥

'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' की व्याख्या को आप भलीभांति समझ चुके हैं । अब आगे

॥ १.१.२ ॥ जन्माद्यस्य यतः ॥

अर्थात ~ जन्मादि = जन्म आदि (उत्पत्ति , स्थिति और प्रलय ) , अस्य = इस जगत के , यतः = जिससे होते हैं , वह ब्रह्म है ।

इस पद की सामान्य व्याख्या यह है की जो जड़ - चेतनात्मक जगत सर्वसाधारण के देखने , सुनने और अनुभव में आ रहा है , जिसकी अद्भुत रचना के किसी एक अंश पर भी विचार करने से बड़े से बड़े वैज्ञानिकों को आश्चर्यचकित होना पड़ता है , इस विचित्र विश्व के जन्म आदि जिससे होते हैं अर्थात जो सर्वशक्तिमान परात्पर परमेश्वर अपनी अलौकिक शक्ति से इस सम्पूर्ण जगत की रचना कर्ता है तथा इसका धारण पोषण तथा नियमित रूप से संचालन कर्ता है एवं फिर प्रलयकाल आने पर जो इस समस्त विश्व को अपने में विलीन कर लेता है , वह परमात्मा ही ब्रह्म है ।

श्रीमद भागवत में भी यही कहा गया है-

|| परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च ||

अर्थात इस परमेश्वरी की ज्ञान , बल और क्रियारूप स्वाभाविक दिव्य शक्ति नाना प्रकार की ही सुनी जाती है ।
॥ ॐ श्री परमात्माने नमः ॥

॥ १.१.१ ॥ अथातो ब्रह्मजिज्ञासा ॥
॥ १.१.२ ॥ जन्माद्यस्य यतः ॥
की व्याख्या को आप भलीभांति समझ चुके हैं । अब आगे........

॥ १.१.३ ॥ शास्त्रयोनित्वात ॥

अर्थात ~ शास्त्र (वेद) के योनि-कारण अर्थात प्रमाण होने से ब्रह्म का अस्तित्व सिद्ध होता है एवं शास्त्र में उस ब्रह्म को जगत का कारण बताया ,इसलिए (इसको जगत का कारन मानना उचित है )। वेद में जिस प्रकार ब्रह्म के सत्य , ज्ञान और "अनंत सत्यं ज्ञान्मनतम ब्रह्म "(तै.उ.) और आदि लक्षण बताये गए हैं , उसी प्रकार उसको जगत का कारण भी बताया गया है ।

"एष योनिः सर्वस्य " (मा. उ.) ~ यह परमात्मा सम्पूर्ण जगत का कारण है ।

यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, येन जातानि जीवन्ति
यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति । तद्विजिज्ञासस्व । तद्ब्रह्मेति । (तै.उ.)
ये सब प्रत्यक्ष दिखने वाले प्राणी निससे उत्पन्न होते हैं , उत्पन्न होकर जिसके सहारे जीवित रहते हैं तथा अंत में प्रयाण करते हुए जिसमें प्रवेश करते हैं , उसको जानने की इच्छा कर , वही ब्रह्म है ।

प्रभु श्रीकृष्ण जब अर्जुन को विराट रूप के बारे में जानकारी देते हैं तो अर्जुन भी कहते हैं
"नमः पुरस्तादतथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व ।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः । (गीता)"
हे अनंत सामर्थ्यों वाले। आपके लिए आगे से और पीछे से भी नमस्कार है। हे सर्वात्मन। आपके लिए सब और से ही नमस्कार हो । क्योँकि अनंत पराक्रमशाली आप समस्त संसार को व्याप्त किये हुए हैं , इससे आप ही सर्वरूप हैं अर्थात सब कुछ आप ही हैं ।

Wednesday, November 13, 2013

।। अथातो ब्रह्मजिज्ञासा । १.१.१.।


॥ ॐ श्री परमात्माने नमः ॥

आप सभी के अंतर्मन में स्थापित ब्रह्मस्वरूप को प्रणाम करते हुए वेदांत - दर्शन (ब्रह्मसूत्र ) का पहला अध्याय शुभारंभ किया जा रहा है ।

परमात्मा कौन है ?

"त्वमेव माता च पिता त्वमेव |त्वमेव माता च पिता त्वमेव |
त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव |त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव |
त्वमेव सर्वं मम देवदेव || मुकं करोति वाचलं पंगुं लंघयते गिरिम l
यत्कृपा तमहं वन्दे परमानंदमाधवं ll

अर्थात ~ हे परमात्मा तू ही माता है, पिता भी तू ही है, तू ही भाई, तू ही सखा (सहायक) है तू ही ज्ञान तथा तू ही धन है हे देवों के देव । मेरे लिए सभी कुछ तू ही है । हे माधव यदि आपकि कृपा हो तो गुँगे भी बोल सकते है
पंगु पर्वत लांघ सकते है हे परमानन्द आपको मेरा नमन है । तो ऐसे हैं हमारे परमात्मा उनको बारम्बार नमन ।

आइये इस परमात्मा के खोज में शुरू करते है ब्रह्म सूत्र के प्रथम पाद से :-

१.१.१.।। अथातो ब्रह्मजिज्ञासा ।

अथ = अब , अतः = यहाँ से , ब्रह्मजिज्ञासा = ब्रह्मविषयक विचार आरम्भ किया जाता है ।

इस सूत्र में ब्रह्मविषयक विचार आरम्भ करने की बात कहकर यह सूचित किया गया है की ब्रह्म कौन है ? इसका स्वरुप क्या है ? वेदांत में उसका वर्णन किस प्रकार हुआ है ? इत्यादि सभी ब्रह्मविषयक बातों का विवेचन किया जाना है ।