Sunday, October 14, 2012

बुढ़ापा

व्याघ्रीव तिष्टति जरा परितर्जयन्ती रोगाश्च शत्रव इव प्रहरन्ति देहम् ।
आयुः परिस्रवति भिन्नघटादिवाम्भो लोकस्तथाप्यहितमाचरतीति चित्रम् ॥

मानव जीवन में बुढ़ापा दहाड़ती हुई बाघिन की तरह सामने आ धमकती है । विविध रोग शत्रुओं की भांति शरीर पर प्रहार करते हैं । जैसे दरार पड़े घड़े से पानी रिसता है वैसे ही आयु हाथ से खिसकती रहती है । आश्चर्य होता है इतना सब होते हुए भी लोग अहितकर कर्मों में लिप्त रहते हैं ।

No comments:

Post a Comment