Wednesday, October 10, 2012

हमारा व्यवहार त्रयात्मक होता है। उसके तीन अंग हैं - प्रवृत्ति , निवृत्ति और उपेक्षा। किसी कार्य में प्रवृत्ति , किसी कार्य से निवृत्ति और किसी कार्य की उपेक्षा व्यवहार के ये तीन आधार हैं। मनुष्य ने अपने सारे व्यवहार को तीन भागों में विभक्त कर दिया। जो अच्छा नहीं है , उसे छोड़ता है। जो उपादेय है , उसमें प्रवृत्ति करता है। जो उपेक्षणीय है , उसकी उपेक्षा करता है। हमारे सारे व्यवहार इन्हीं तीनों श्रेणियों में समाहित हैं। व्यवहार के आधार पर विधि - निषेधों का एक अंबार खड़ा हो गया। क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए - इन दो शब्दों - विधि और निषेध पर विशाल साहित्य रचा गया। विधि शास्त्र और निषेध शास्त्र का व्यापक विकास हुआ।
ये तीन ऐसी विशेषताएं मनुष्य में हैं , जो किसी दूसरे प्राणियों में नहीं हैं। हम मनुष्य की अपनी तीन मौलिक विशेषताएं हैं - विचार , वचन और व्यवहार। विचार करने की जो क्षमता मनुष्य में है , वह किसी दूसरे प्राणी में नहीं है। वचन की जो शक्ति मनुष्य में है , वह किसी दूसरे प्राणी में नहीं है। व्यवहार की क्षमता भी जैसी मनुष्य में है , वैसी किसी प्राणी में नहीं है। ये तीन ऐसे गुण हैं , ये तीन ऐसी विशेषताएं हैं , जो मनुष्य को शेष जगत के सारे प्राणियों से अलग कर देती हैं। उसकी अलग पहचान बनाती हैं।

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