Sunday, July 15, 2012

मूर्ति पूजा

आज कल मूर्तिपूजा को गलत बताने की प्रथा सी चल पड़ी है , और सब लोग बिना किसी आपत्ति के उसमें विश्वास भी करने लग गए हैं। मैनें भी एक समय ऐसा ही सोच था और दंड स्वरुप मुझे ऐसे व्यक्ति के चरण कमल में बैठ कर शिक्षा ग्रहण करनी पड़ी , जिन्होनें सब कुछ मूर्ति पूजा के ही द्वारा प्राप्त किया था , मेरा अभिप्राय श्री रामकृष्ण परमहंस से है । यदि मूर्ति पूजा के द्वारा श्री रामकृष्ण परमहंस जैसे व्यक्ति उत्पन्न हो सकते हैं , तब तुम क्या पसंद करोगे ? सुधारकों का धर्म या मूर्ति पूजा । यदि मूर्ति पूजा के द्वारा इस प्रकार श्री रामकृष्ण परमहंस उत्पन्न हो सकतें हैं , तो और हजारों मूर्तियों की पूजा करो । प्रभु तुम्हें सिद्धि देवें । जिस किसी भी उपाय से हो सके , इस प्रकार के महापुरुषों की सृष्टि करो
और इतने पर भी मूर्ति पूजा की निंदा की जाती है क्यों ? यह कोई नहीं जानता
। शायद इस लिए की हजारों वर्ष पहले किसी यहूदी ने इसकी निंदा की थी । अर्थात उसने अपनी मूर्ति को छोडकर और सब की मूर्तियों की निंदा की थी । उस यहूदी ने कहा था , यदि ईश्वर का भाव किसी विशेष प्रतिक या सुन्दर प्रतिमा द्वारा प्रकट किया जाय , तो यह भयानक दोष है , एक जघन्य पाप है ; परन्तु यदि उसका अंकन एक संदूक के रूप में किया जाय , जिसके दोनों किनारों पर दो देवदूत बैठें हैं और ऊपर बादल का टुकड़ा लटक रहा है , तो वह बहुत ही पवित्र होगा । यदि ईश्वर पंडुक  का रूप धारण करके आये , तो वह महापवित्र होगा ; पर यदि वह गाय का रूप लेकर आये , तो वह मूर्ति पूजकों का कुसंस्कार होगा ! उसकी निंदा करो । दुनिया का बस यही भाव है

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