परहित सरिस धरम नहिं भाई । परपीड़ा सम नहिं अधमाई ॥
“ परोपकार ” यानी पर ( अन्य ) का कल्याण के लिये नि:स्वार्थ भाव से उपकार करना । सनातन संस्कृति में परोपकारिता एक सदगुण के रूप में देखा जाता है और यह माना जाता है की परोपकार के समान कोई धर्म नहीं है । मन, वचन और कर्म से परोपकार की भावना से कार्य करने वाले व्यक्ति संत की श्रेणी में आते है ।
“ परोपकार ” यानी पर ( अन्य ) का कल्याण के लिये नि:स्वार्थ भाव से उपकार करना । सनातन संस्कृति में परोपकारिता एक सदगुण के रूप में देखा जाता है और यह माना जाता है की परोपकार के समान कोई धर्म नहीं है । मन, वचन और कर्म से परोपकार की भावना से कार्य करने वाले व्यक्ति संत की श्रेणी में आते है ।
इस ब्रह्माण्ड के अधिकांश तत्व पशु-पक्षी,
पेड़-पौधे, सभी किसी न किसी प्रकार से हमारे जीवन को सुगम और सफ़ल बनाते हैं। फिर हम
तो मनुष्य हैं, ईश्वर ने हाथ, पैर के अतिरिक्त हमें ज्ञान भी दिया है । अतः हमें उस ज्ञान का प्रयोग करके, दूसरों
के लिए भी जीना सीखना चाहिए ।
परोपकाराय फलन्ति वृक्षाः परोपकाराय वहन्ति नद्यः । परोपकाराय
दुहन्ति गावः परोपकारार्थ मिदं शरीरम् ॥
परोपकार के लिए वृक्ष फल देते हैं, नदीयाँ परोपकार के लिए ही बहती हैं और
गाय परोपकार के लिए दूध देती हैं , अर्थात यह शरीर भी परोपकार
के लिए ही है ।
रविश्चन्द्रो घना वृक्षा नदी गावश्च सज्जनाः । एते
परोपकाराय युगे दैवेन निर्मिता ॥
सूर्य, चन्द्र, बादल, नदी,
गाय और सज्जन - ये हरेक युग में ब्रह्मा ने परोपकार के लिए निर्माण
किये हैं ।
भवन्ति
नम्रस्तरवः फलोद्रमैः , नवाम्बुभिर्दूरविलम्बिनो घनाः ।
अनुद्धताः सत्पुरुषाः समृद्धिभिः , स्वभाव एवैष परोपकारिणाम् ॥
अनुद्धताः सत्पुरुषाः समृद्धिभिः , स्वभाव एवैष परोपकारिणाम् ॥
वृक्षों पर फल आने से वे झुकते हैं
(नम्र बनते हैं) ; पानी में भरे बादल आकाश में नीचे आते हैं; अच्छे लोग समृद्धि से गर्विष्ठ नहीं
बनते, परोपकारियों का यह स्वभाव हि होता है ।
परोपकृति कैवल्ये तोलयित्वा जनार्दनः । गुर्वीमुपकृतिं
मत्वा ह्यवतारान् दशाग्रहीत् ॥
भगवान श्री विष्णु ने परोपकार और मोक्षपद दोनों
को तोलकर देखे, तो उपकार का पल्लु ज़ादा झुका हुआ दिखा ; इसलिए परोपकारार्थ
उन्हों ने दस अवतार लिये ।
भवन्ति
नम्रस्तरवः फलोद्रमैः , नवाम्बुभिर्दूरविलम्बिनो घनाः ।
अनुद्धताः सत्पुरुषाः समृद्धिभिः , स्वभाव एवैष परोपकारिणाम् ॥
अनुद्धताः सत्पुरुषाः समृद्धिभिः , स्वभाव एवैष परोपकारिणाम् ॥
जिस प्रकार वृक्षों पर फल आने से
वे झुकते हैं (नम्र बनते हैं) ; पानी में भरे बादल आकाश में नीचे आते
हैं ; अच्छे लोग समृद्धि
से गर्विष्ठ नहीं बनते , परोपकारियों का ऐसा स्वभाव होता है ।
जीवितान्मरणं श्रेष्ठ परोपकृतिवर्जितात् । मरणं
जीवितं मन्ये यत्परोपकृतिक्षमम् ॥
बिना उपकार के जीवन से मृत्यु श्रेष्ठ है ; जो परोपकार करने के लिए शक्तिमान है ,
उस मरण को भी मैं जीवन मानता
हूँ ।
आत्मार्थं जीवलोकेऽस्मिन् को न जीवति मानवः । परं परोपकारार्थं
यो जीवति स जीवति ॥
इस जीवलोक में स्वयं के लिए कौन नहीं जीता ? परंतु, जो परोपकार
के लिए जीता है, वही सच्चा जीना है ।।
परोपकारशून्यस्य धिक् मनुष्यस्य जीवितम् । जीवन्तु
पशवो येषां चर्माप्युपकरिष्यति ॥
परोपकार रहित मानव जीवन को धिक्कार है । वे
पशु धन्य है , मरने के बाद जिनका चमडा भी उपयोग में आता है ।
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