Sunday, August 19, 2012

परोपकार


परहित सरिस धरम नहिं भाई । परपीड़ा सम नहिं अधमाई ॥
परोपकार ” यानी पर ( अन्य ) का कल्याण के लिये नि:स्वार्थ भाव से उपकार करनासनातन संस्कृति  में परोपकारिता एक सदगुण के रूप में देखा जाता है और यह माना जाता है की परोपकार के समान कोई धर्म नहीं है । मन, वचन और कर्म से परोपकार की भावना से कार्य करने वाले व्यक्ति संत की श्रेणी में आते है
इस ब्रह्माण्ड के अधिकांश तत्व पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, सभी किसी न किसी प्रकार से हमारे जीवन को सुगम और सफ़ल बनाते हैं। फिर हम तो मनुष्य हैं, ईश्वर ने हाथ, पैर के अतिरिक्त हमें ज्ञान भी दिया है । अतः हमें उस ज्ञान का प्रयोग करके, दूसरों के लिए भी जीना सीखना चाहिए
परोपकाराय फलन्ति वृक्षाः परोपकाराय वहन्ति नद्यः । परोपकाराय दुहन्ति गावः परोपकारार्थ मिदं शरीरम् ॥
       परोपकार के लिए वृक्ष फल देते हैं, नदीयाँ परोपकार के लिए ही बहती हैं और गाय परोपकार के लिए दूध देती हैं ,      अर्थात यह शरीर भी परोपकार के लिए ही है ।
रविश्चन्द्रो घना वृक्षा नदी गावश्च सज्जनाः । एते परोपकाराय युगे दैवेन निर्मिता ॥
       सूर्य, चन्द्र, बादल, नदी, गाय और सज्जन - ये हरेक युग में ब्रह्मा ने परोपकार के लिए निर्माण किये हैं ।
भवन्ति नम्रस्तरवः फलोद्रमैः , नवाम्बुभिर्दूरविलम्बिनो घनाः ।
अनुद्धताः सत्पुरुषाः समृद्धिभिः , स्वभाव एवैष परोपकारिणाम् ॥
       वृक्षों पर फल आने से वे झुकते हैं (नम्र बनते हैं) ; पानी में भरे बादल आकाश में नीचे आते हैं; अच्छे लोग    समृद्धि से गर्विष्ठ नहीं बनते, परोपकारियों का यह स्वभाव हि होता है ।
परोपकृति कैवल्ये तोलयित्वा जनार्दनः । गुर्वीमुपकृतिं मत्वा ह्यवतारान् दशाग्रहीत् ॥
       भगवान श्री विष्णु ने परोपकार और मोक्षपद दोनों को तोलकर देखे, तो उपकार का पल्लु ज़ादा झुका हुआ दिखा ;        इसलिए परोपकारार्थ उन्हों ने दस अवतार लिये ।
भवन्ति नम्रस्तरवः फलोद्रमैः , नवाम्बुभिर्दूरविलम्बिनो घनाः ।
अनुद्धताः सत्पुरुषाः समृद्धिभिः , स्वभाव एवैष परोपकारिणाम् ॥
       जिस प्रकार वृक्षों पर फल आने से वे झुकते हैं (नम्र बनते हैं) ; पानी में भरे बादल आकाश में नीचे आते      हैं ; अच्छे लोग समृद्धि से गर्विष्ठ नहीं बनते , परोपकारियों का ऐसा स्वभाव होता है ।
जीवितान्मरणं श्रेष्ठ परोपकृतिवर्जितात् । मरणं जीवितं मन्ये यत्परोपकृतिक्षमम् ॥
       बिना उपकार के जीवन से मृत्यु श्रेष्ठ है ; जो परोपकार करने के लिए शक्तिमान है , उस मरण को भी मैं   जीवन        मानता हूँ ।
आत्मार्थं जीवलोकेऽस्मिन् को न जीवति मानवः । परं परोपकारार्थं यो जीवति स जीवति ॥
       इस जीवलोक में स्वयं के लिए कौन नहीं जीता ? परंतु, जो परोपकार के लिए जीता है, वही सच्चा जीना है ।
परोपकारशून्यस्य धिक् मनुष्यस्य जीवितम् । जीवन्तु पशवो येषां चर्माप्युपकरिष्यति ॥
       परोपकार रहित मानव जीवन को धिक्कार है । वे पशु धन्य है , मरने के बाद जिनका चमडा भी उपयोग में     आता है ।


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