क्रोध

क्रोध-
क्रोध कोप गुस्सा अनख , उत्तेजना आक्रोश !
क्षोप विक्षोप रीस रुष्टि , रोद्र असूया रोष !!

भारतीय मसालों क़े निराले नुस्खों का चमत्कार

आप भी इसे भी आजमा कर देख सकते यदि गंभीर स्थिति न हो तो और लाभ उठा सकते हैं.:-

ह्रदय रोग में-गेहूं की भूसी को अर्जुन की छाल क़े साथ बराबर की मात्रा में चूर्ण बनाकर घी में भून लें
फिर इस मात्रा का तीन गुना शहद मिला कर रख लें.यह अवलेह छै ग्रामसे दस ग्रा.की मात्रा तक गाय क़े दूध में सेवन करें और भयंकर से भयंकर ह्रदय रोग को दूर भगा कर निश्चिन्त हो जाएँ

दुबलेपन में-प्रातः सायं तीन-तीन
ग्रा.हल्दी क़े चूर्ण को गोदुग्ध क़े साथ सेवन करने से शरीर मोटा हो जाता है

ताकत क़े लिये -पचास ग्रा.चने की दाल को १०० ग्रा.दूध में रात्रि को भिगो दें प्रातः काल इस फूली हुई दाल को चबा-चबा कर खाएं,उसके साथ किशमिश या गुड का प्रयोग करें.कम से कम चालीस दिन प्रयोग करने से ताकत बढ़ती है

नकसीर में-छै ग्रा.फिटकरी को ५० ग्रा.पानी में घोल कर नाक में टपकायें अथवा रुई का फाहा तः करके नाक में लगा दें.इसी पानी में कपडा तः करके माथे पर रखें,नकसीर तुरन्त बन्द हो जायेगी

नशा-नाशक -आंवले क़े पत्ते १०० ग्रा.लेकर ४०० ग्रा.पानी में ठंडाई की भांति पीस कर पिलाने से अफीम तक का विष दूर हो जाता है

निमोनिया में-अदरक अथवा तुलसी क़े पत्तों का रस ६ ग्रा.,शहद ६ ग्रा.दोनों को मिलाकर दिन में दो-तीन बार दें.इस प्रयोग से बिना किसी इंजेक्शन प्रयोग क़े खांसी,बलगम,दर्द आदि ठीक हो जाते हैं

पथरी में-पेठे क़े १०० ग्रा.रस में भवछार(जवाखार)३ ग्रा.तथा पुराना गुड २ ग्रा.मिलाकर पिलाने से कुछ ही दिन में हर प्रकार की पथरी नष्ट हो जाती है

बदहजमी में-खाने का सोडा ,सोंठ ,काली मिर्च,छोटी पीपल और नौसादर समान मात्रा में लेकर कूट-पीस कर चूर्ण बना लें.डेढ़ ग्रा.दावा दिन में तीन बार पानी से खिलाएं.बदहजमी समाप्त होगी

बाल काले करना-सूखे हुए आंवले को बारीक पीस लें,फिर नींबू का रस डालकर पीसें.इसे सिर में लगा दें.जब सूख जाये तो सिर को पानी से ढो लें.धन रखें सिर को दही से बिलकुल न धोयें.नारियल का तेल सिर में लगायें.बालों की सफेदी दूर होकर बाल काले,मुलायम और चमकदार हो जाते हैं

कुत्ता काटने पर-देसी साबुन और शहद दोनों को समान मात्रा में मिलाकर इतना रगड़ें कि,मरहम बन जाये.इसे कुत्ते क़े काटे हुए घाव पर लगायें तत्काल फायदा होगा

गंजापन दूर करें-पत्ता गोभी क़े रस को लगातार सिर पर मालिश करें तो गंजापन ,बाल ज्घरना,बाल गिरना आदि रोग दूर हो जाते हैं

सांप का विष उतारें-सांप द्वारा काटने पर एक घंटे क़े भीतर नीला थोथा (तूतिया)लें और तवे पर भून कर मुनक्का में रख कर निगलवा दें तो सांप का विष समाप्त होगा

हिचकी में-कलौंजी (मगरैला) का चूर्ण ३ ग्रा. लेकर १० ग्रा. ताज़ा मक्खन में मिलाकर खिलने से हिचकी दूर हो जाती है

मलेरिया - बुखार में-१० ग्रा. दालचीनी का चूर्ण लें उसमें ढाई ग्रा. आक का दूध मिलाकर खुश्क करें.रोगी को एक ग्रेन (आधी रत्ती )दावा पानी क़े साथ दें.यह दावा कुनैन से ज्यादा प्रभाव कारी है

दस्त में -सौंफ और सफ़ेद जीरा समान मात्रा में लें और तवे पर भून लें.फिर बारीक पीस कर ३ -३ ग्रा.दिन में दो -तीन बार तजा पानी से खिलाएं.यह सरल ,सस्ता और चमत्कारी इलाज है

उल्टी में- नींबू पर नामक और काली मिर्च लगा कर चूसने से उल्टी में लाभ होता है

राम-बाण औषद्धि:-

साफ़ सिल-बट्टा लें,जिस पर मसाला न पीसा गया हो.इस पर २५ से ५० तक तुलसी क़े पत्ते खरल कर लें ऐसे पिसे हुए पत्ते ६ से १० ग्रा. तक लें और ताजा दही अथवा शहद में मिलाकर खिलावें (दूध में भूल कर भी न दें) यह दवा प्रातः निराहार एक ही बार लें और तीन -चार मांस तक सेवन करें तो गठिया का दर्द, खांसी, सर्दी, जुकाम, गुर्दे की बीमारी, गुर्दे का काम न करना, गुर्दे की पथरी, सफ़ेद दाग का कोढ़, शरीर का मोटापा, वृद्धावस्था की दुर्बलता, पेचिश, अम्लता, मन्दाग्नी, कब्ज, गैस, दिमागी कमजोरी, याददाश्त में कमी, पुराने से पुराना सिर-दर्द, हाई एवं लो ब्लड-प्रेशर, हृदयरोग, शरीर की झुर्रियां, बिवाई और श्वास रोग दूर हो जाते हैं विटामिन , 'ए'और 'सी'की कमी दूर होती है, रुका हुआ रक्तस्त्राव ठीक हो जाता है, आँख आने और दुखने तथा खसरा निवारण में यह राम-बाण औषद्धि है उपरोक्त नुस्खे आयुर्वेदिक पद्धति क़े अनुसार हैं तथा प्रत्येक घर-परिवार में उपलब्ध अन्न व मसालों पर आधारित हैं.इनका कोई साइड-इफेक्ट या रिएक्शन नहीं होता है.आपके व आपके सम्पूर्ण परिवार क़े लिये मंगल-कामनाओं क़े साथ इन्हें प्रस्तुत किया गया है

आवश्यकता अनुसार योग्य चिकित्सक से परामर्श लेवें

बुढ़ापा

व्याघ्रीव तिष्टति जरा परितर्जयन्ती रोगाश्च शत्रव इव प्रहरन्ति देहम् ।
आयुः परिस्रवति भिन्नघटादिवाम्भो लोकस्तथाप्यहितमाचरतीति चित्रम् ॥

मानव जीवन में बुढ़ापा दहाड़ती हुई बाघिन की तरह सामने आ धमकती है । विविध रोग शत्रुओं की भांति शरीर पर प्रहार करते हैं । जैसे दरार पड़े घड़े से पानी रिसता है वैसे ही आयु हाथ से खिसकती रहती है । आश्चर्य होता है इतना सब होते हुए भी लोग अहितकर कर्मों में लिप्त रहते हैं ।

पश्येम शरदः शतम्

पश्येम शरदः शतम् ।।१।।
हम सौ शरदों तक देखें, यानी सौ वर्षों तक हमारे आंखों की ज्योति स्पष्ट बनी रहे ।
जीवेम शरदः शतम् ।।२।।
सौ वर्षों तक हम जीवित रहें ।
बुध्येम शरदः शतम् ।।३।।
सौ वर्षों तक हमारी बुद्धि सक्षम बनी रहे, हम ज्ञानवान् बने रहे ।
रोहेम शरदः शतम् ।।४।।
सौ वर्षों तक हम वृद्धि करते रहें, हमारी उन्नति होती रहे ।
पूषेम शरदः शतम् ।।५।।
सौ वर्षों तक हम पुष्टि प्राप्त करते रहें, हमें पोषण मिलता

रहे ।
भवेम शरदः शतम् ।।६।।
हम सौ वर्षों तक बने रहें ।
भूयेम शरदः शतम् ।।७।।
सौ वर्षों तक हम पवित्र बने रहें, कुत्सित भावनाओं से मुक्त रहें ।
भूयसीः शरदः शतात् ।।८।।
सौ वर्षों से भी आगे ये सब कल्याणमय बातें होती रहें ।
(अथर्ववेद, काण्ड १९, सूक्त ६७)
ओम् तत् चक्षुः देव हितं पुरस्तात शुकं उच्चरत I
पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं I
श्र्णुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतं I
अदीनः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात् II
- यजु. ३६/२४

ब्रह्माण्ड तेरा रूप है , यह विश्व तेरा क्षेत्र है
इस विश्व को है देखता , सूरज तुम्हारा नेत्र है
हम भी इसे देखें प्रभु, सौ वर्ष तक देखें प्रभु
आँखों में तेरा तेज है , हर दृश्य तेरा चित्र है
सौ वर्ष तक इन कानों से हम , तेरे सुने गुण गान हम
तू ही हमारा इष्ट है , तू ही हमारा मित्र है
शत वर्ष तेरी भक्ति हो , रोगों से हरदम मुक्ति हो
तेरी शरण में है पिता , तू ही दयालु पितृ है

Wednesday, October 10, 2012

यजुर्वेद के मंत्रों की व्याख्या

वेदो में लिखी गई कुछ ऐसी बाते भी है जिसे कुछ लोगो ने जानबूझकर दबा दिया और विकृत अर्थो में लोगो के सामने रखा.
यजुर्वेद के मंत्रों को भली प्रकार जानने के लिए हमें उन मंत्रो की क्रमानुसार व्याख्या करनी होगी.

यजुर्वेद अध्याय २३ मंत्र २१.
उत्सक्थ्या अव गुदं धेहि समञ्जिं चारया वृषन् | य स्त्रीणां जीवभोजन: ||
(हे बलशाली - दुष्टो के दमनकर्ता, जो लोग अपनी स्त्रियों को क्रीड़ा एवं व्यसन में नियोजित करके अपनी जीविका प्राप्त करते हैं, आप उनको प्रताड़ित करें तथा स्त्रियों द्वारा विद्या और बुद्धि के क्षेत्र में उत्तम सुख की स्थापना करें .)
यह श्लोक स्त्री शिक्षा पर ज़ोर भी देता है तथा इसका पक्षधर भी है.

यजुर्वेद अध्याय २३ मंत्र २२.
यकासकौ शकुन्तिकाहलगिति वञ्चति | आहन्ति गभे पसो निगल्गलिती धारका ||
(आध्वर्यु का कथन - यह जो शक्ति धारण किए प्रवाहमान जल है, शकुन्ति (पक्षी) के समान अद्यातजनित शब्द करता है. इस उत्पादक जल में यज्ञ तेज आता है. तेज धारण किया हुआ जल गल-गल ध्वनि करता है.)

यजुर्वेद अध्याय २३ मंत्र २३.
यकोसकौ शकुन्तक ऽ आहलगिति वञ्चति | विवक्षत ऽ इव ते मुखमध्वर्यो मा नस्त्वमभि भाषथा: ||
(कुमारी कहती है - हे अध्वर्यु, आपका बोलने को आतुर मुख शकुन्तक पक्षी की तरह सतत शब्द कर रहा है. आप केवल यज्ञीय सन्दर्भ में अपनी वाणी का प्रयोग करें.)
यजुर्वेद अध्याय 21 मंत्र 60
सुपस्था ऽ अद्य देवो वनस्पतिरभवदश्विभ्या छागेन सरस्वत्यै मेषेणेन्द्राय ॠषभेणाक्षस्तान मेदस्त: प्रति पचतागृभीषतावीवृधन्त पुरोडाशैरपुरश्विना सरस्वतीन्द्र: सुत्रामा सुरासोमान् ||
(यज्ञस्थल मे वनस्पतिदेव ने उपस्थित होकर छाग (औषधि) द्वारा अश्विनिकुमारो को, मेष (औषधि) द्वारा सरस्वतिदेवी को तथा ऋषभ (औषधि) द्वारा इंद्रदेव को प्रसन्न किया. संतुष्ट हुए इंद्रदेव ने अश्विनिकुमारो और देवी सरस्वती के साथ माहौषधियो का तीक्ष्णरस तथा सोम पान किया.)

अथर्ववेद के मंत्रों की व्याख्या.
अथर्ववेद कांड ४ सूक्त ४ मंत्र १
यां त्वा गन्धर्वो अखनद वरुणाय मृत भ्रजे | तां त्वा वयं खनामस्योषधिं शेपहर्षणीम् ||
(हे औषधे, वरुण (वरणिय मनुष्यों) के लिए आपको गन्धर्वो ने खोदा था. हम भी इंद्रिय-शक्ति बढ़ाने वाली औषधि आपको खोदतें हैं.)

अथर्ववेद कांड ४ सूक्त ४ मंत्र ६
अद्याग्ने अद्य सवितरद्य देवि सरस्वती | अद्यास्य ब्राह्मणस्पते धनुरिवा तानया पस: ||
(हे अग्निदेव, हे सवितादेव, हे सरस्वती, हे ब्राह्मणस्पाते. आप इस मनुष्य की इंद्रियों को बल प्रदान करके उसे धनुष के समान प्रहरक बनाएँ.)

अथर्ववेद कांड ४ सूक्त ४ मंत्र ८
अश्वस्याश्वतरस्याजस्य पेतवस्य च | अथ ऋषभस्य ये वाजास्तानस्मिन धेहि तनूवशिन ||
(हे औषधे, घोड़ा, बैल, मेढ़ा (नर-भेड़) आदि के शरीर मं जो ओजस् है, उसे मनुष्य के शरीर में स्थापित करें.)

अथर्ववेद कांड ६ सूक्त १०१ मंत्र ३
आहं तनोमि ते पासो अधि ज्यामिव धन्वनि | क्रमस्वर्श इव रोहितमनवग्लायता सदा ||
(हे पुरुष, अब हम लक्ष्य वेधन में समर्थ धनुष पर चढ़ी प्रत्यंचा के समान तुम्हारे शरीर को पुष्ट करतें हैं. तुम प्रसन्न मन ऐवं पुष्ट शरीर वाले होने के बाद. अपनी जीवानसंगिनी के सदा साथ रहो.)

अथर्ववेद कांड १४ सूक्त २ मंत्र ३८
तां पूषञ्छिवतमामेरयस्व यस्यां बीजं मनुष्या३ वपन्ति | या न ऊरु उशती विश्रयाति यसयायामुशन्त: प्रहरेंम शेप: ||
(हे पुषन् (पोषण करने वाला) आप उस कल्याणकारी उर्वारा शक्ति को प्रेरित करें. जिसमे मनुष्य बीज वपन करतें हैं. वह उल्लासित होकर अपने ऊरु (खेती योग्य भूमि) प्रदेश को विस्तरित करे. जिससे वहाँ पर बीज बोया जाए.)

अथर्वेद कांड २० सूक्त १३३ मंत्र १-४
विततौ किरणौ द्वौ तावा पिनष्टि पुरूष: | न वै कुमारी तत तथा यथा कुमारी मन्यसे ||
मातुष्टे किरणौ द्वौ निवृत: पुरुषा नृते | न वै कुमारी तत तथा यथा कुमारी मन्यसे ||
निगृह्य कर्णकौ द्वौ निरा यच्छसि मध्यमे | न वै कुमारी तत तथा यथा कुमारी मन्सये ||
उत्तनायै शयानायै तिष्ठन्ती वाव गुहसि | न वै कुमारी तत तथा यथा कुमारी मन्सये ||
(इन सभी मंत्रो को प्रवहलिका पहेलियाँ कहा जाता है. जो मनुष्य की बुद्धि (कुमारी) और माया (किरणौ) का परस्पर धन(वित) और ममता(मातुष्टे) के साथ संबंध व्यक्त करती हैं (१-२). हे मध्‍यमे, आप जड़ और चेतन दोनो कर्णो (छोरो) को नियोजित कर देतीं हैं, ऐसा भी नही हैं (३). ये पूरी प्रकृति सोते जागते माया के अधीन ही रहती हैं. ऐसा भी नही हैं (४).)

मनुष्यों की समानता से संबंधित.
सह्रदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि व: |
अन्यो अन्यमभि हर्यत वत्सं जात्मिवाघ्न्या ||
(हे मनुष्यों ! हम आपके लिए हृदय को प्रेमपूर्ण बनाने वाले तथा सौमनस्य बढाने वाले कर्म करते हैं. आप लोग परस्पर उसी प्रकार व्यवहार करें, जिस प्रकार गौ अपने बछड़े से स्नेह करती है.)

अनुव्रत: पितु: पुत्रो मात्रा भवतु संमना: |
जाया पत्ये मधुमति वाचं वदतु शन्तिवाम ||
(पुत्र अपने पिता के अनुकूल कर्म करने वाला हो और पता के साथ सामान विचार से रहने वाला हो. पत्नी अपने पति से मधुरता तथा सुख से युक्त वाणी बोले.)

येन देवा न वियन्ति नो च विद्विष्ते मिथ: |
तत कृन्मो ब्रह्म वो गृहे संज्ञान पुरुषेभ्य: ||
(जिसकी शक्ति से देवगण भी विपरीत विचार वाले नहीं होते और आपस में द्वेष नहीं करते है. उस सामान विचार को सम्पादित करने वाले ज्ञान को हम आपके घर के मनुष्यों के लिए प्रयुक्त करते हैं.)


स्त्री या नारी शक्ति से संबंधित.
नास्य जाया शतवाही कल्याणी तल्पमा शये |
यस्मिन राष्ट्रे निरुध्यते ब्रह्मजायाचित्त्या ||
(जिस राष्ट्र में इस ब्रह्मजाया (पवित्र नारी) को जड़ता पूर्वक प्रतिबन्ध में डाला जाता है, उस राष्ट्र में सैकड़ों कल्यानो को धारण करने वाली 'जाया' (विद्या) भी फलित होने से वंचित रह जाती है.)


अथर्ववेद के सन्दर्भ में ये बात भी जान लेनी चाहिए की वेदों में सिर्फ़ यज्ञीय कर्मकांडों पर ही नही अपितु मनुष्य के क्रियाकलापों, प्रकृति की क्रियाओं, अध्यात्म, अनुशासन आदि पर भी लिखा गया है.

आज हम अधिकतर की सोच यही है की भौतिक विकास के लिए हम को चालबाज, तिकड़मी, बेईमान, धोखेबाज होना चाहिए। क्योंकि चालबाज, तिकड़मी, बेईमान, धोखेबाज, कुटिल, कपटी, छली, प्रपंची व्यक्ति को व्यावहारिक चालाक, पटु माना जाता है।
छल और कपट को तात्कालिक स्वार्थसिद्धि के कौशल के रूप में परिभाषित किया जाता है। इसका दुष्परिणाम है कि जीवन में परस्पर अविश्वास, अपवित्रता एवं कुटिलता बढ़ती जा रही है। भोगवादी विचारधारा इन्द
्रियों की तृप्ति में ही सुख मानती है इस कारण कपटता को सुखी जीवन का आधार मान लिया जाता है। अहंकार मन के कपट को बढ़ा देता है। कपट के कारण व्यक्ति खुल नहीं पाता,ऐसी स्थिति में मानसिक बेचैनी, अकारण चिन्ता, भय, कल्पित शारीरिक रोग आदि उत्पन्न हो जाते हैं।
अतः जीवन सुखमय करने के लिए सरलता, निष्कपटता, स्पष्टवादिता तथा ईमानदारी का होना अत्यंत जरूरी है।
हमारे शिवपुराण में कहा गया है कि दयालु मनुष्य, अभिमानशून्य व्यक्ति, परोपकारी और जितेंद्रीय ये चार पवित्र स्तंभ हैं, जो इस पृथ्वी को धारण किए हुए हैं। एक आदर्श पुत्र, आदर्श पति, भ्राता एवं आदर्श राजा- एक वचन, एक पत्नी, एक बाण जैसे व्रतों का निष्ठापूर्वक पालन करने वाले राम का चरित्र उकेरकर अहिंसा, दया, अध्ययन, सुस्वभाव, इंद्रिय दमन, मनोनिग्रह जैसे षट्‍गुणों से युक्त आदर्श चरित्र की स्थापना रामकथा का मुख्य प्रयोजन है।
शाश्वत एवं स्वयं सिद्ध नियम यह है की प्राकृतिक व्यतिक्रम से ही रोग उत्पन्न होते हैं। तथा समानुपातन से उनका निदान भी हो जाता है। जब भी नैसर्गिक संचरण में भेद पैदा होगा, कोई न कोई अनपेक्षित या कृत्रिम घटना-दुर्घटना जन्म लेगी ही।
काम क्रोध मद लोभ रत गृहासक्त दुखरूप।
ते किमि जानहिं रघुपतिहि मूढ़ परे तम कूप॥
भावार्थ:-जो काम, क्रोध, मद और लोभ में रत हैं और दुःख रूप घर में आसक्त हैं, वे श्री रघुनाथजी को कैसे जान सकते हैं? वे मूर्ख तो अंधकार रूपी कुएँ में पड़े हुए हैं॥


ब्यापि रहेउ संसार महुँ माया कटक प्रचंड।
सेनापति कामादि भट दंभ कपट पाषंड॥
भावार्थ:-माया की प्रचंड सेना संसार भर में छाई हुई है। कामादि (काम, क्रोध और लोभ) उसके सेनापति हैं और दम्भ, कपट और पाखंड योद्धा हैं॥


गुन कृत सन्यपात नहिं केही। कोउ न मान मद तजेउ निबेही॥
जोबन ज्वर केहि नहिं बलकावा। ममता केहि कर जस न नसावा॥
भावार्थ:-(रज, तम आदि) गुणों का किया हुआ सन्निपात किसे नहीं हुआ? ऐसा कोई नहीं है जिसे मान और मद ने अछूता छोड़ा हो। यौवन के ज्वर ने किसे आपे से बाहर नहीं किया? ममता ने किस के यश का नाश नहीं किया?॥


राम अनंत अनंत गुनानी। जन्म कर्म अनंत नामानी॥
जल सीकर महि रज गनि जाहीं। रघुपति चरित न बरनि सिराहीं॥
भावार्थ:-भगवान्‌ श्री राम अनंत हैं, उनके गुण अनंत हैं, जन्म, कर्म और नाम भी अनंत हैं। जल की बूँदें और पृथ्वी के रजकण चाहे गिने जा सकते हों, पर श्री रघुनाथजी के चरित्र वर्णन करने से नहीं चूकते॥
हर देश और धर्म में चार तरह के लोग मिल जाएंगे-

1. पहले वे जो ज्ञान, विज्ञान और धर्म में रुचि रखते हैं और सत्य आचरण करते हैं। पहले किस्म के लोग जरूरी नहीं है कि धर्म-कर्म में रुचि रखने वाले ही हों। वे साहित्य और सृजन के किसी भी क्षेत्र में रुचि रखने वाले हो सकते हैं।

ब्राह्मणत्व से तात्पर्य है जो ब्रह्म में विश्वास रखते हुए श्रेष्ठ चिन्तन व श्रेष्ठ कर्म का हो। दलित, आदिवासी आदि समाज के लोगों में ब्राह्मण मिलते हैं।


2. दूसरे वे जो राजनीति और शक्ति के कार्य में रुचि रखते हैं। दूसरे किस्म के लोग जरूरी नहीं है कि राजनीति में ही रुचि रखने वाले हों। वे अच्‍छे सैनिक, खिलाड़ी, प्रबंधक और पराकर्म दर्शाने वाले सभी कर्म में रुचि रखने वालों में भी हो सकते हैं।

3. तीसरे वे जो उद्योग-व्यापार में रुचि रखकर सभी के हित के लिए कार्य करते हैं। तीसरे किस्म के लोग व्यापारी के अलावा श्रेष्ठ किस्म के व्यवस्थापक, अर्थ के ज्ञाता, बैंक या वित्त विभाग को संभालने वाले आदि हो सकते हैं।

4. चौथे किस्म के वे लोग जो किसी भी कार्य में रुचि नहीं रखते। जो रा‍क्षसी कर्म में ही रुचि रखते हैं अर्थात जिनकी दिनचर्या में शामिल होता है खाना, पीना, संभोग करना और सो जाना।चौथे किस्म के लोग जरूरी नहीं है कि पशुवत या राक्षसी जीवन जीने वाले लोग ही हों, वे अपराधी और हर समय बुरा ही सोचने, बोलने और करने वाले लोग भी हो सकते हैं। वे मूढ़ किस्म के लोग होते हैं। ऐसे लोग पढ़े लिखे भी हो सकते हैं और अनपढ़ भी ।

शूद्र निशाचरी, राक्षसी और अप्रमादी कर्म करने वाले को कहते हैं । शूद्रत्व से अर्थ है ब्रह्म को छोड़कर अन्य में मन रमाने वाला निकृष्ट चिंतन व निकृष्ट कर्म करने वाला।

साभार : वेबदुनिया
अमृतस्य पुत्रोहऽम

कौन कहता है - अमृतस्य पुत्रोहऽम ?

गुरु कहता है मनुष्य को, तू अमृत का पुत्र है । वेद कहता है तू अमृत का पुत्र है । ऋषियों ने, मुनियों ने अपनी आत्मानुभूति के द्वारा जाना है कि यह मनुष्य अमृत का पुत्र है ।

शरीर घट है, घट के भीतर अमृत है । इस शरीर घट के भीतर आत्म तत्व आत्मा के रुप में स्थित है और इस आत्म तत्व से अमृत का श्रोत बहता है और अनवरत बहता ही रहता है । भीतर देखेगा त
ो जानेगा कि अमृत का श्रोत बह रहा है ।

अमृत का अनुभव प्रेम के द्वारा होता है ।

अमृत का अनुभव ज्ञान के द्वारा होता है ।

अमृत क्या है ? प्रेम । प्रेम मानव का जीवन है । यदि मानव को किसी से प्रेम न मिले तो उसका जीवन दुभर हो जाता है । प्रेम हृदय को सरस बनाता है । प्रेम को विकास में लाने के लिये एक और साथी चाहिये । प्रेम मोह नहीं, वासना नहीं, स्वार्थ नहीं, प्रेम तो अमृत है, ज्ञान तो अमृत है । प्रकाश अधंकार मिटाता है यह सर्व विदित है । आत्मा का अनुभव जब होता है तो वह अमर ज्योति का भाव लाता है ।

आत्मा अमर है । अमर का प्रेम अमृत, अमर का ज्ञान - अनुभव अमृत है । प्रेम अमर, प्रेमी अमर । ज्ञान अविनाशी, ज्ञान का प्रकाश अमर, उस ज्ञान को पाने वाला भी अमर । प्रेम से सृष्टि की रचना हुई और प्रेम से ही मानव का अवतार हुआ । अमृत को पान करने वाला तथा अन्य जन को पान कराने वाला इस सृष्टि में केवल मानव ही है । तभी तो वेदों ने कहा "अमृतस्य पुत्रोहऽम" । तू अमृत से बना है और अमृत ही पान करने वाला है ।

जिस फल को संसार ने विष कहा संतो ने उसी फल से अमृत निकाल कर अनुभव करा दिया । देखना और अनुभव करना दोनों में अन्तर है । देखती है आखें, अनुभव करता है हृदय और मन । मन ने अनुभव पाया है संतो के समीप बैठ कर । आखें तो देखती ही रहती है रात-दिन बाहर का दृश्य, अनुभव तो अन्दर हृदय में होता है । अनुभव को बाहरी साथ की आवश्यकता नहीं । अनुभव तो भीतरी चेतना कराती है । तो अमृत का पुत्र अमृत पाने आया है, हृदय में अहिर्निश आनन्द-आनन्द की ध्वनि होती है । प्रकृति में भी ध्वनि हो रही है - "तू ही, तू ही, तू ही, तू ही" की अहिर्निश ध्वनि । मानव के हृदय के अन्दर भी ध्वनि हो रही है, "आनन्द-आनन्द-आनन्द-आनन्द" । यह आनन्द की ध्वनि कभी-कभी झंकार भी पैदा करती है कभी प्रतिध्वनि के रुप में गूँजती है ।

अमर क्या है ? आत्मा-परमात्मा । आत्मा मनुष्य में परमात्मा सर्वव्यापी सृष्टि के कण कण में फैला हुआ है । परमात्मा का ही अशं है आत्मा । आत्मा जब हृदय में बसी तो अमृत का पुत्र कहलाया मनुष्य । सद्गुरु ने कहा-तू अमृत का पुत्र है तो परम भाव में रह । तू विष पीने के लिये नहीं आया । तू ऐसे अमर भाव के वस्त्र पहन कि तुझे संसार का, माया का कोई प्रलोभन विनाशी न बना सके । तेरा ज्ञान अविनाशी तेरा प्रेम अमर । तू छोटा कहाँ ? तू तुच्छ कहाँ ? बार-बार तुझे यही कहना है - अमृतस्य पुत्रोहऽम ।

वाणीः प्यार मर गया । नहीं, प्यार अमर है, आनन्द अमर है, आत्मानन्द अमर है ।

श्रीमती सुलोचना देवी बगडिया
महात्मा तैलंग स्वामी का विश्वास था- ‘भगवान यह मनुष्य शरीर बनाकर स्वयं इसमें विराजते हैं। मनुष्य जितना संसार के लिए परिश्रम करता है, उसका शतांश भी यदि भगवान के लिए प्रयत्न करे तो वह उसे प्राप्त कर सकता है। तब उस समय संसार में उसके लिए कुछ भी
असंभव नहीं रहेगा।’ वह कहते थे- ‘भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना करनी चाहिए, उनकी भक्ति करनी चाहिए। गुरु द्वारा निर्दिष्ट मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।’

महात्मा तैलंग स्वामी लय योगी, हठ योगी और ज्ञान योगी- सभी कुछ थे। वह अपना जीवन लोककल्याण को समर्पित कर चुके थे। वह जीवन-मुक्त महात्मा थे। उनका कहना था- ‘यदि हम अपने आपको नहीं जान सकते हैं तो ईश्वर को भी नहीं जान सकते हैं। जितने दिन तक हम अपने आप को नहीं जानते हैं, उतने दिन तक चेष्टा करने पर भी ईश्वर को नहीं जान सकते हैं।’

महात्मा तैलंग स्वामी तप, साधना, उपासना पर अधिक बल देते थे। वह इसी को भक्ति कहते थे और इसे ही वह ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बताते थे- ‘यदि ईश्वर को जानने और पाने की इच्छा है, तो उपासना करना आवश्यक है। जिनमें यह इच्छा नहीं है उनके लिए उपासना भी आवश्यक नहीं है। ईश्वर किसी की प्रशंसा के भूखे नहीं हैं।’
पहाड़ी बाबा के गुरु (सत्यानन्द गिरी) के गुरु (स्वामी युक्तेश्वर गिरी) के गुरु थे श्री श्री लाहिड़ी महाशय। आप बनारस में रहते थे। आपको "क्रियायोग" के प्रवर्तक के रूप में देखा जाता है। आपकी शिक्षा थी कि आध्यात्मिक उन्नति के लिए 'गृहस्थ' जीवन त्यागने की जरुरत नही है। वास्तव में यही शिक्षा देने के लिए 'महावातार बाबा' ने आपको चुना था।
आप पिछले जन्म में भी महावातार बाबा के शिष्य थे। रेलवे में नौकरी के दौरान जब आप रानीखेत में तैनात थे, तब महावातार बाबा स्वयं आपको बुलाकर एक गुफा में ल

े गए थे। उन्होंने आपको आपके पिछले जन्म के कमण्डल, आसन आदि दिखलाये। जब उन्होंने आपके मस्तक को छुआ, तो आपको सब याद आ गया।
परमहंस अवस्था को प्राप्त त्रैलंग स्वामी का काशी में बड़ा सम्मान था। एक बार स्वामी जी गंगातट पर शिष्यों के साथ बैठे थे कि तभी लाहिड़ी महाशय उधर से गुजरे। लाहिड़ी महाशय भी उच्च कोटि के साधक थे पर उनकी साधना गुप्त थी। वह गृहस्थ जीवन जीते थे। वह सुंदर कपड़े पहनते और सुख के साधनों का उपभोग करते थे। लाहिड़ी महाशय को देख त्रैलंग स्वामी उठ खड़े हुए और उन्हें नमस्कार कर गले लगा लिया। लाहिड़ी महाशय के जाने के बाद शिष्यों ने पूछा, 'आप उन्हें देख कर खड़े क्यों हुए, वह तो एक गृहस्थ हैं।' त्रैलंग स्वामी बोले, 'जो तत्व मैंने सब कुछ त्यागकर प्राप्त किया, उसे उन्होंने गृहस्थ जीवन में पा लिया है। केवल ऊपर से दिखने वाले पहलू को ही वास्तविकता मान लेना गलत है। जीवन में सामान्य दिखने वाला व्यक्ति भी साधना में उच्च स्तर तक पहुंच सकता है।'
कुछ महत्वपूर्ण बातें :-

* भारतीय दर्शन का विशिष्ट सिद्धांत है कर्मवाद का सिद्धांत ।

* इस संसार में कोई भी, किसी को सुख-दुख देने वाला नहीं है। किसी को किसी ने सुख-दुख दिया है, यह मात्र कुबुद्धि है।

* शुभ-अशुभ कर्म जैसा व्यक्ति करेगा, उसे अवश्य ही फल भोगना पड़ेगा।

* हर देहधारी प्राणी को अपने कर्म तो भोगने ही पड़ते हैं। चाहे वह ज्ञानी हो या मूर्ख। अंतर इतना ही है कि ज्ञानी अपने मन को ज्ञान से समझकर उनका हंसते हुए भोगता है और मूर्ख रोता हुआ भोगता है।

* अपने कर्म का जिम्मेदार जीवात्मा स्वयं ही है। जैसा कर्म भोग होता है, व्यक्ति को वैसा ही साधन, बुद्धि, सहायक एवं स्थान प्राप्त हो जाता है।
इस आर्थिक युग में भौतिक सुखों की अधिक इच्छा के कारण व्यक्ति अशांत रहता है। अति योगवाद ( भौतिक सामग्रियों ) स्वच्छंद और अनियंत्रित भोगवाद के कारण स्वस्थ समाज का निर्माण नहीं हो पा रहा है। इसके लिए हर मनुष्य को अनुशासित व संस्कारित होना होगा, तभी वह समाज व सृष्टि के लिए उपयोगी होगा और व्यक्ति को संस्कारित करना ही अध्यात्म का काम है।
संसार दर्पण है. हम दूसरों में जो देखते हैं, वह अपनी ही प्रतिक्रिया होती है. जब तक सभी में शिव और सुंदर के दर्शन न होने लगें, तब तक जानना चाहिए कि स्वयं में ही कोई खोट शेष रह गई है.जिस प्रकार फूलों के लिए सारा जगत फूल है और कांटों के लिए कांटा. जो जैसा है, उसे दूसरे वैसा ही प्रतीत होते हैं. जो स्वयं में नहीं है, उसे दूसरों में देख पाना कैसे संभव है! सुंदर को खोजने के लिए चाहे हम सारी भूमि पर भटक ले  पर यदि वह स्वयं
के ही भीतर नहीं है, तो उसे कहीं भी पाना असंभव है. आइये इस सन्दर्भ में एक सुन्दर प्रसंग का अवलोकन करें :

एक समय की बात है एक अजनबी किसी गांव में पहुंचा. उसने उस गांव के प्रवेश द्वार पर बैठे एक वृद्ध से पूछा, ”क्या इस गांव के लोग अच्छे और मैत्रिपूर्ण हैं?”
उस वृद्ध ने सीधे उत्तर देने की बजाय स्वयं ही उस अजनबी से प्रश्न किया, ”मित्र, जहां से तुम आते हो वहां के लोग कैसे हैं?”
अजनबी दुखी और क्रुद्ध हो कर बोला, ”अत्यंत क्रूर, दुष्ट और अन्यायी. मेरी सारी विपदाओं के लिए उनके अतिरिक्त और कोई जिम्मेवार नहीं. लेकिन आप यह क्यों पूछ रहे हैं?”
वृद्ध थोड़ी देर चुप रहा और बोला, ”मित्र, मैं दुखी हूं. यहां के लोग भी वैसे ही हैं. तुम उन्हें भी वैसा ही पाओगे.”
वह व्यक्ति जा भी नहीं पाया था कि एक दूसरे राहगीर ने उस वृद्ध से आकर पुन: वही बात पूछी, ”यहां के लोग कैसे हैं?”
वह वृद्ध बोला, ”मित्र क्या पहले तुम बता सकोगे कि जहां से आते हो, वहां के लोग कैसे हैं?”
इस प्रश्न को सुन यह व्यक्ति आनंदपूर्ण स्मृतियों से भर गया. उसकी आंखें खुशी के आंसुओं से गीली हो गई. उसने कहा, ”आह, वे बहुत प्रेमपूर्ण और बहुत दयालू थे. मेरी सारी खुशियों का कारण वे ही थे. काश, मुझे उन्हें कभी भी न छोड़ना पड़ता!”
वृद्ध बोला, ”मित्र, यहां के लोग भी बहुत प्रेमपूर्ण हैं, इन्हें तुम उनसे कम दयालु नहीं पाओगे, ये भी उन जैसे ही हैं. मनुष्य-मनुष्य में बहुत भेद नहीं है.”
सनातन जीवन दर्शन विशेष रूप से किसी सीधी राह की बात नहीं सोचता, वह जीवन की जटिलताओं को अच्छी तरह ध्यान में रखते हुए ही लम्बी और घुमावदार राह की परिकल्पना करता है। सनातन धर्म में गुरू की कल्पना परित्राता के रूप में नहीं है, नेत्र - उन्मीलक के रूप में है, वह राह चलना नहीं सिखाता, राह पहचानना सिखाता है, चलना तो आदमी को स्वयं होता है।
प्रभु श्री कृष्ण जी श्रीमद् भागवत में कहतें हैं की
यत्र तत्र मनो देही धारयेत् सकलं धिया,
स्नेहाद् द्वेषाद् भयाद् भयाद् वापि याति तत्तत् स्वरूप ताम्।
व्यक्ति स्नेह, द्वेष एवं भय से प्रेरित होकर अपने मन को, भावना को, बुद्धि द्वारा जहां-तहां ले जाता है। मन वैसा ही आकार धारण कर लेता है। स्नेह से प्रेरित मन स्नेही, भय से भय युक्त और द्वेष से द्वेषी हो जाता है। संसार में जितने कारण बंधन के लिए हैं, उतन
े ही कारण मुक्ति के भी हैं। भावों के कारण ही राग, द्वेष, अमृत, विष आदि द्वैत कोई एक स्वरूप ग्रहण कर लेते हैं। मन को विचारों के जिस रस से भावित किया जाए, वैसी ही भावना बन जाती है। बुद्धि तात्विक परिस्थिति के अनुरूप निश्चित निर्णय पर पहुंचती है। मन प्रत्यक्ष से प्रभावित होकर तत्काल निर्णय कर बैठता है। मन सम्मत कृत्रिम इच्छा जीव की इच्छा है। इसी मन से मानव मर्यादाओं का अतिक्रमण करता है। मनमानी करता है। यहां बुद्धि सम्मत सहज इच्छा को ईश्वरीय कहा गया है। यह मानव को अतिक्रमण नहीं करने देती । इसी को बुद्धिमानी कहते हैं। अविद्या के चार दोष जहां मन को मनमानी करने के प्रवृत्त कर अतिक्रमण के कारण बनते हैं, वहीं विद्या रूपी चार गुण बुद्धि को बल प्रदान करते हुए मनोनियंत्रण के कारण बनते हैं। शब्द ब्रह्म रूपी शास्त्र ज्ञान ही ज्ञान है। इसे न जानना ही अविद्या है। आत्म विकास को ही ऎश्वर्य कहते हैं। संकोच ही अस्मिता है । विकास ही स्मित भाव है। आत्मा में सम्पूर्ण ऎश्वर्य व्याप्त है । किन्तु अस्मिता दोष के कारण व्यक्ति स्वयं को दीन-हीन-द्ररिद्र मानता रहता है । राग-द्वेष सहित ग्रन्थि बन्ध आसक्ति है। स्वरूप स्थिति को धर्म कहा है। इसको विस्मृत कराने वाली हठधर्मिता ही अभिनिवेश है । विद्या से बुद्धि सबल होकर मन का नियंत्रण रखती है। इसके बिना मन अधर्म के प्रवाह में बह जाता है।

शनि देव

'ऊँ शं शनिश्चरायै नम:'
शनिवार शनि देव का दिन माना गया है। इस दिन शनि के निमित्त विशेष पूजन, दान या धार्मिक कर्म करने से कई प्रकार के शुभ फल प्राप्त होते हैं। शनिदेव की शुभ दृष्टि प्राप्त करने के लिए किसी भी शनिवार से यह उपाय शुरू करें। इस उपाय के अनुसार आपको लगातार सात शनिवार तक बिना विलंब एक-एक नारियल किसी पवित्र नदी में प्रवाहित करना है। साथ ही नारियल प्रवाहित करते समय ऊँ रामदूताय नम: मंत्र का
जप करें।
-----लगातार सात शनिवार इस प्रकार करने से समस्याओं का प्रभाव कम हो जाएगा और हनुमानजी के साथ ही शनिदेव की कृपा भी प्राप्त होगी।इसके अलावा प्रति मंगलवार और शनिवार के दिन हनुमान चालीसा का पाठ करना चाहिए। हनुमानजी के भक्तों पर शनिदेव का कुप्रभाव नहीं होता है।
----हर शनिवार को किसी पीपल के वृक्ष में जल चढ़ाने और सात बार परिक्रमा करने से भी शनि के अशुभ प्रभावों से मुक्ति मिलती है।
----हर शनिवार किसी काले कुत्ते को तेल लगी हुई रोटी खिलाना चाहिए। ज्योतिष के अनुसार कुत्ते को रोटी खिलाने से शनि के दोष शांत होते हैं।
- ---शनिवार के दिन तेल का दान करें। शनि देव के दर्शन करें और शनि मंत्र का जप करें। शनि मंत्र: ऊँ शं शनैश्चराय नम:
- ---प्रतिदिन महामृत्युंजय मंत्र का जप करें। मंत्र ऊँ त्र्यम्बकम् यजामहे सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनात् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात।।
- ---प्रतिदिन किसी शिव मंदिर जाकर शिवलिंग पर दूध और जल अर्पित करें। साथ ही ऊँ नम: शिवाय मंत्र का जप करें।
- ---नियमित रूप से श्रीकृष्ण की पूजा करें और इस मंत्र का जप करें। मंत्र: ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय नम:
- ---किसी शुभ मुहूर्त में चांदी का नाग का जोड़ा बनवाएं और उसकी पूजा करके किसी पवित्र नदी में श्रद्धापूर्वक प्रवाहित करें।
-----शनिवार के दिन काले घोड़े की नाल का छल्ला मध्यमा अंगुली यानी मीडिल फिंगर में पहनें। इससे भी शनि दोष शांत होता है।
----प्रतिदिन शिवलिंग पर जल चढ़ाएं और बिल्व पत्र अर्पित करने चाहिए। ऐसा करने पर शनि के दोषों से मुक्ति मिलती है।
----समय-समय पर गरीब लोगों को काले कंबल का दान करना चाहिए। शनि देव गरीबों की मदद करने वाले लोगों से विशेष स्नेह रखते हैं और उन्हें कष्ट नहीं देते हैं।
हमारे सनातन धर्म के दस लक्षण जो शास्‍त्रों में बताए गये हैं -

‘धृति क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रिय निग्रहः। धीर विद्या सत्‍यमक्रोधो, दशकं धर्म लक्षणः -मनु स्मृति 6/92

( धैर्य , क्षमा , संयम , चोरी न करना , शौच ( स्वच्छता ), इन्द्रियों को वश मे रखना , बुद्धि , विद्या , सत्य और क्रोध न करना ; ये दस धर्म के लक्षण हैं । )

मनु के अनुसार दस कर्म पुण्य हैं-

धृति- हर परिस्थिति में धैर्य बनाए रखना।
क्षमा
- बदला न लेना, क्रोध का कारण होने पर भी क्रोध न करना।
दम- उदंड न होना।
अस्तेय- दूसरे की वस्तु हथियाने का विचार न करना।
शौच- आहार की शुद्धता।
इंद्रियनिग्रह- इंद्रियों को विषयों (कामनाओं) में लिप्त न होने देना।
धी- किसी बात को भलीभांति समझना।
विद्या- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का ज्ञान।
सत्य- झूठ और अहितकारी वचन न बोलना।
अक्रोध- क्षमा के बाद भी कोई अपमान करें तो भी क्रोध न करना।
यज्ञोपवीत धारण करने के मूल में एक वैज्ञानिक पृष्ठभूमि भी है। शरीर के पृष्ठभाग में पीठ पर जाने वाली एक प्राकृतिक रेखा है जो विद्युत प्रवाह की तरह कार्य करती है। यह रेखा दाएं कंधे से लेकर कटि प्रदेश तक स्थित होती है। यह नैसर्गिक रेखा अति सूक्ष्म नस है। इसका स्वरूप लाजवंती वनस्पति की तरह होता है। यदि यह नस संकोचित अवस्था में हो तो मनुष्य काम-क्रोधादि विकारों की सीमा नहीं लांघ पाता। अपने कंधे पर यज्ञो
पवीत है इसका मात्र एहसास होने से ही मनुष्य भ्रष्टाचार से परावृत्त होने लगता है। यदि उसकी प्राकृतिक नस का संकोच होने के कारण उसमें निहित विकार कम हो जाए तो कोई आश्यर्च नहीं है। इसीलिए सभी धर्मों में किसी न किसी कारणवश यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। सारनाथ की अति प्राचीन बुद्ध प्रतिमा का सूक्ष्म निरीक्षण करने से उसकी छाती पर यज्ञोपवीत की सूक्ष्म रेखा दिखाई देती है। यज्ञोपवीत केवल धर्माज्ञा ही नहीं बल्कि आरोग्य का पोषक भी है, अतएव एसका सदैव धारण करना चाहिए। शास्त्रों में दाएं कान में माहात्म्य का वर्णन भी किया गया है। आदित्य, वसु, रूद्र, वायु, अगि्न, धर्म, वेद, आप, सोम एवं सूर्य आदि देवताओं का निवास दाएं कान में होने के कारण उसे दाएं हाथ से सिर्फ स्पर्श करने पर भी आचमन का फल प्राप्त होता है। यदि ऎसे पवित्र दाएं कान पर यज्ञोपवीत रखा जाए तो अशुचित्व नहीं रहता।
यथा-निवीनी दक्षिण कर्णे यज्ञोपवीतं कृत्वा मूत्रपुरीषे विसृजेत। अर्थात अशौच एवं मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ रखना आवश्यक है। अपनी अशुचि अवस्था को सूचित करने के लिए भी यह कृत्य उपयुक्त सिद्ध होता है। हाथ पैर धोकर और कुल्ला करके जनेऊ कान पर से उतारें। इस नियम के मूल में शास्त्रीय कारण यह है कि शरीर के नाभि प्रदेश से ऊपरी भाग धार्मिक क्रिया के लिए पवित्र और उसके नीचे का हिस्सा अपवित्र माना गया है। दाएं कान को इतना महत्व देने का वैज्ञानिक कारण यह है कि इस कान की नस, गुप्तेंद्रिय और अंडकोष का आपस में अभिन्न संबंध है। मूत्रोत्सर्ग के समय सूक्ष्म वीर्य स्त्राव होने की संभावना रहती है। दाएं कान को ब्रrासूत्र में लपेटने पर शुक्र नाश से बचाव होता है। यह बात आयुर्वेद की दृष्टि से भी सिद्ध हुई है। यदि बार-बार स्वप्नदोष होता हो तो दायां कान ब्रrासूत्र से बांधकर सोने से रोग दूर हो जाता है।
बिस्तर में पेशाब करने वाले लडकों को दाएं कान में धागा बांधने से यह प्रवृत्ति रूक जाती है। किसी भी उच्छृंखल जानवर का दायां कान पकडने से वह उसी क्षण नरम हो जाता है। अंडवृद्धि के सात कारण हैं। मूत्रज अंडवृद्धि उनमें से एक है। दायां कान सूत्रवेष्टित होने पर मूत्रज अंडवृद्धि का प्रतिकार होता है। इन सभी कारणों से मूत्र तथा पुरीषोत्सर्ग करते समय दाएं कान पर जनेऊ रखने की शास्त्रीय आज्ञा है।
सभी से एक जैसा बर्ताव रखें। जैसे आप हर किसी से सम्मान चाहते हैं, वैसे ही हर कोई आपसे भी अपेक्षा रखता है।संतों ने अहं के त्याग की बात कही, खुद को भुलाने की बात कही। अगर हमारे मन में अपनी कोई छवि ही नहीं होगी तो हम दूसरों को भी किसी सांचे में ढालने की कोशिश नहीं करेंगे। इस तरह किसी की उम्मीद नहीं टूटेगी और विरोधी विचारों का भी आदर होगा।
यदि सामने वाला आपको अपेक्षा के अनुरूप उत्तर न दे, तो यह कतई न समझे कि वह गलत है। उसके पीछे भी कोई न कोई कारण हो सकता है । आप उस उत्तर को सुनें और समझने की कोशिश करें। लेकिन पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर न सुनें ।
हमारा व्यवहार त्रयात्मक होता है। उसके तीन अंग हैं - प्रवृत्ति , निवृत्ति और उपेक्षा। किसी कार्य में प्रवृत्ति , किसी कार्य से निवृत्ति और किसी कार्य की उपेक्षा व्यवहार के ये तीन आधार हैं। मनुष्य ने अपने सारे व्यवहार को तीन भागों में विभक्त कर दिया। जो अच्छा नहीं है , उसे छोड़ता है। जो उपादेय है , उसमें प्रवृत्ति करता है। जो उपेक्षणीय है , उसकी उपेक्षा करता है। हमारे सारे व्यवहार इन्हीं तीनों श्रेणियों में समाहित हैं। व्यवहार के आधार पर विधि - निषेधों का एक अंबार खड़ा हो गया। क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए - इन दो शब्दों - विधि और निषेध पर विशाल साहित्य रचा गया। विधि शास्त्र और निषेध शास्त्र का व्यापक विकास हुआ।
ये तीन ऐसी विशेषताएं मनुष्य में हैं , जो किसी दूसरे प्राणियों में नहीं हैं। हम मनुष्य की अपनी तीन मौलिक विशेषताएं हैं - विचार , वचन और व्यवहार। विचार करने की जो क्षमता मनुष्य में है , वह किसी दूसरे प्राणी में नहीं है। वचन की जो शक्ति मनुष्य में है , वह किसी दूसरे प्राणी में नहीं है। व्यवहार की क्षमता भी जैसी मनुष्य में है , वैसी किसी प्राणी में नहीं है। ये तीन ऐसे गुण हैं , ये तीन ऐसी विशेषताएं हैं , जो मनुष्य को शेष जगत के सारे प्राणियों से अलग कर देती हैं। उसकी अलग पहचान बनाती हैं।
अचिनोति च शास्त्रार्थं आचारे स्थापयत्यति ।
स्वयमप्याचरेदस्तु स आचार्यः इति स्मृतः ॥

जो स्वयं सभी शास्त्रों का अर्थ जानता है, दूसरों के द्वारा ऐसा आचार स्थापित हो इसलिए अहर्निश प्रयत्न करता है; और ऐसा आचार स्वयं अपने आचरण में लाता है, उन्हें आचार्य कहते है ।
यदि आप प्रातः जल्दी उठ पातें हैं तो भोर में उठकर प्रार्थना करने और अपने इष्ट को धन्यवाद देने का संस्कार डाल लें।

आज के दिन जागकर मैं धन्य हूँ कि मैं जीवित और सुरक्षित हूँ, मेरा जीवन अनमोल है, मैं इसका सही उपयोग करूँगा। अपनी समस्त ऊर्जा को मैं आत्मविकास में लगाऊँगा, अपने ह्रदय को दूसरों के लिए खोलूँगा, सभी जीवों के कल्याण के लिए काम करूँगा, दूसरों के प्रति मन में अच्छे विचार रखूँगा, किसी से नाराज़ नहीं होऊंगा और किसी का बुरा नहीं सोचूंगा, दूसरों का जितना हित कर सकता हूँ उतना हित करूँगा।

आप एक शानदार दिन की शुरुआत होते देख सकते हैं।
ज्ञानी कहतें है इस जीवन से अंधकार हटाना व्यर्थ है, क्योंकि अंधकार हटाया नहीं जा सकता. जो यह जानते हैं, वे अंधकार को नहीं हटाते, वरन् प्रकाश को जलाते हैं.परभु को पाने की आकांक्षा से अपने आप को भरो, तो पाप अपने से छूट जाते हैं. और, पापों से ही लड़ते रहते हैं, वे उनमें ही और गहरे धंसते जाते हैं. जीवन को आरोहण दो, निषेधात्मक पलायन नहीं. सफलता का स्वर्ण सूत्र यही है.

याद रखिए

जीवन का एक महत्वपूर्ण पक्ष आकर्षण है. पूरा विश्व आकर्षण तत्व से बद्ध है. आकर्षण की अनिवार्यता को आज के युग में अभिव्यक्ति की आवश्यकता नहीं है. सभी व्यक्ति के मन में कहीं न कहीं ये इच्छा ज़रूर होती है की वह आकर्षण से युक्त बने. चेहरे पर एक ऐसा तेज हो जिससे की दुनिया में सभी व्यक्ति उसको अनुकूलता देने के लिए आतंरिक रूप से प्रेरित हो. व्यक्ति के शरीर के आस पास एक ऐसा प्रभामंडल का निर्माण हो जिसके माध्यम से वह सभी व्यक्तियो का प्रिय बने.
हमको हमारा यह देव-दुर्लभ मानव-शरीर एक नियत समय के लिए ही मिला है l नियत समय पूरा होने पर यह हमसे छीन लिया जायेगा और इसके सारे साज-सामान भी यहीं छूट जायेंगे l जब तक जीवन का यह नियत काल पूरा न हो जाये, तभी तक मानव-जीवन का पूरा लाभ उठा लेना चाहिए l
जीवन का सबसे सुन्दर रंग प्रेम है , ये ऐसा रंग है जिस मैं हर कोई रंगना चाहता है , इस मैं जीना चाहता है ! जिस घर मैं प्रेम नहीं है श्रधा नहीं है ,तो फिर वह घर खुशिया नहीं देता ! विशवास प्रेम के धागे मैं बांधे रखता है यदि विशवास टूट गया तो प्रेम के धागे भी टूट जाते हैं .. परम पूज्य सुधांशुजी महाराज

भयभीत या चिंताग्रस्त होने पर आपकी ऊर्जा खर्च होती है और यह ऊर्जा आपकी अपव्यय है इससे आपकी जीवन शक्ति भी धीरे धीरे ख़तम हो जाती है

याद रखिए श्वास लेना जीवन का प्रतीक है ,और श्वास छोड़ना मृत्यु का सन्देश , इस तरह हम रोज मरते हैं और जीते हैं !

भय ,चिंता ,क्रोध ,लोभ ,भोग ,उपभोग ,शोक ,मोह ,इर्ष्या ये नो चीजें है जो मनुष्य के अन्दर मृत्यु के पाश क़ा कार्य करती है ! इन से सावधान रहो !

अपने को बदलने में विश्वास रखिए, दूसरों से बदला लेने की इच्छा नहीं करें ।

अपने बच्चों को अमीर बनाने का प्रयास मत करो, उन्हें अमीर बनाने की विधी सिखा दो।

जहर से भरी हुई मिठाई मीठी लगती है निस्संदेह, पर वह मारनेवाली ही होती है l जहर का ज्ञान न होने से या ज्ञान होने पर भी स्वाद के लोभ से लोग उसे खा लेते हैं l मीठी है तो क्या; उसका घातक प्रभाव तो होगा ही l भोग-जगत भी ठीक ऐसा ही है l इसीलिए भगवान् ने इन्द्रिय-भोगों को भोगकाल में अमृत के समान और परिणाम में विष के सदृश मारनेवाला बताया है l
इस संसार में संतान दो प्रकार की होती है-जड़ और चेतन। व्यक्ति द्वारा निर्मित कृतियां भी व्यक्ति की संतान की श्रेणी में आती हैं। चेतन संतान तो पुत्र/ पुत्री रूप ही होता है। सृष्टि में संतान उत्पन्न करने का एक ही सिद्धान्त है :-
पूर्ण मद: पूर्ण मिदम् ..
इसका अर्थ है कि व्यक्ति भी पूर्ण है, संतान भी पूर्ण है और पूर्ण में से पूर्ण निकल जाने पर शेष भी पूर्ण ही रहता है। सिद्धान्त रूप में संतान और माता-पि

ता में विशेष अन्तर नहीं है। दोनों ही सृष्टि क्रम के अंश रूप में पैदा होते हैं।
मां का माया रूप ही संतान का स्वरूप बनाता है। हम प्रकृति की संतान हैं। प्रकृति (क्षर) अक्षर पुरूष की संतान है। अक्षर स्वयं भी अव्यय पुरूष की संतान है। अव्यय ब्रह्म से उत्पन्न होता है। अत: हम सब उसी ब्रह्म की संतान हैं। जितने तत्व ब्रह्म के स्वरूप में हैं, वे सारे भिन्न-भिन्न मात्रा - तारतम्य से हमारे भीतर मौजूद हैं। जब तक हम हैं, हमारे साथ ये सारे बंधे हैं। हमारे रहते इनमें से किसी की भी मुक्ति नहीं हो सकती। इसी तरह हमारे साथ पितृ संस्था की सात पीढियां जुड़ी होती रहती हैं। हम भी सात भावी पीढियों के साथ जुड़े रहेंगे। संतान क्रम का बन्धन है। मारी आकृति पितृ प्राण से, प्रकृति देव प्राण से तथा अहंकृति ऋषि प्राण से बनती है। पार्थिव पितृ प्राण से जाति बनती है। चांद्र देव प्राण से वर्ण का विकास होता है। ऋषि प्राण से गौत्र का विकास होता है।प्रकृति ही माया है। इस पर नियंत्रण संस्कारों से ही संभव है। यही संतान के प्रति व्यक्ति की भूमिका है।

Hindu religion

"When we think of the Hindu religion, unlike other religions in the world, the Hindu religion does not claim any one prophet; it does not worship any one god; it does not subscribe to any one dogma; it does not believe in any one philosophic concept; it does not follow any one set of religious rites or performances; in fact, it does not appear to satisfy the narrow traditional features of any religion of creed. It may broadly be described as a way of life and nothing more." Shri P. B. Gajendragadkar
धन एवं अन्‍य भौतिक वस्‍तुओं के मोह में पड़कर असंतुष्‍ट रहना तथा ग़लत और अनैतिक तरीकों से इनकी प्रप्ति करना लालसा है। लालसा की दुर्भावना से मनुष्‍य में हमेशा और अधिक पाने की चाहत बनी रहती है। इससे मनुष्‍य स्‍वार्थी बनते हैं। उनके जीवन के समस्‍त, कार्य, प्रयास, चिन्‍तन, शक्ति और समय केवल स्‍वयं के हितों की सीमाओं में सिमट जाते हैं।
जागरण का तात्पर्य है सावधान और सचेत रहना। हमें अपने परिवेश और स्वयं के प्रति सचेत रहना चाहिए। इसी से जागरूकता आती है। जागरूकता के अभाव में हम कर्तव्यों से मुंह चुराते रहेंगे।
प्रत्येक व्यक्तित्व को मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित किया जा सकता है, आंतरिक व्यक्तित्व और बाहरी व्यक्तित्व। हमारे विकास में हमारे बाहरी व्यक्तित्व की अपेक्षा आंतरिक व्यक्तित्व का अधिक महत्त्‍‌व होता है। आमतौर पर हम आंतरिक व्यक्तित्व की उपेक्षा कर मात्र बाहरी व्यक्तित्व के विकास के लिए ही प्रयास करते रहते हैं। इसी के कारण असंतुलन उत्पन्न होता है। असंतुलित प्रयास में ही हमारे व्यक्तित्व का संतु
लन और भी ज्यादा गडबड हो जाता है। यदि हमें वास्तव में अपने बाहरी व्यक्तित्व को आकर्षक बनाना है, तो अपने आंतरिक व्यक्तित्व के विकास की ओर ध्यान देना अनिवार्य है। जब तक हमारा मन निर्मल नहीं होगा, तब तक हम दूषित मनोभावों से मुक्त नहीं हो सकते। दूषित मनोभावों से मुक्त होकर ही हम अच्छी आदतों और सद्गुणों का विकास कर सकते हैं। यही हमारे अच्छे व्यक्तित्व की कुंजी है। सद्गुणों के विकास द्वारा ही संपूर्ण आंतरिक और बाहृय व्यक्तित्व का विकास संभव है।
प्रभु 'श्रीकृष्ण' ने गीता में कहा है- लोग जैसा व्यवहार मेरे साथ करते हैं, मैं भी उनके साथ वैसा ही व्यवहार करता हूं। (गीता 6/11) जैसे को तैसा यह सृष्टि का नियम है। इसलिए वेद में कहा गया है- चारों दिशाओं से हमारे पास केवल कल्याणकारी विचार ही आएं। शक्ति का स्रोत आपकी शक्ति का स्रोत क्या है? आत्म शक्ति? नहीं। यह बहुत अल्प होती है। जीवन संग्राम से हम सभी को दो-चार होना पडता है। यह संग्राम हम अकेले नहीं जीत सकते। यहां हमें संगी-साथियों, गुरुजनों, शुभ-चिंतकों की जरूरत पडती है। ये लोग हमारे अच्छे व्यवहार के कारण ही हर सुख-दुख में हमारा साथ देते हैं।
हम मनुष्यों के लिए मात्र ज्ञानी होना पर्याप्त नहीं है। कुछ लोग कई किताबें पढ कर भी दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं कर पाते हैं। व्यावहारिक व्यक्ति ही वास्तव में विद्वान कहलाते हैं।
सत्य यही है की व्यवहार कुशल व्यक्ति अपने नि:स्वार्थ प्रेम से बिना जान-पहचान वाले लोगों को भी आत्मीय सूत्र में बांध लेते हैं। वे न केवल अपनी अकेली शक्ति को सामूहिक शक्ति में बदल लेते हैं, बल्कि अपने विजय पथ को भी प्रशस्त कर लेते हैं।महाभारत के अनुसार, जो सबका मित्र है और नित्य सब के हित में लगा रहता है, वही वास्तव में धर्म का ज्ञाता है। गीता में सभी प्राणियों के प्रति समान भाव रखने की बात कही गई है। उसके अनुसार, ज्ञानी पुरुष मनुष्य और पशुओं को भी समान दृष्टि से देखते हैं। भारत की इसी व्यवहार कुशलता ने वसुधैव कुटुंबकम, विश्वबंधुत्व की भावना को जन्म दिया।

एको देवो महेश्वरः

निरंजनो निराकारो, एको देवो महेश्वरःअर्थात निरंजन निराकार महादेव ही एकमात्र ईश्वर हैं और देवों के देव महादेव शिवलिंग के रूप में पूजे जाते हैंपरन्तु दुखद है की बहुत से लोगों का शिवलिंग का मतलब तक नहीं मालूम है अतः आज जानिये शिवलिंग का मतलब और शिवलिंग की महिमालिंगोपासना की चर्चा मिलती है। शुक्लयजुर्वेदकी द्रुराष्टाध्यायी के द्वारा शिवार्चन एवं रुद्राभिषेक करने से समस्त कामनाएं पूर्ण होती हैं तथा अन्त में सद्गति भी प्राप्त होती है। रुद्रहृदयोपनिषद्का स्पष्ट कथन है- सर्वदेवात्मको रुद्र: सर्वे देवा: शिवात्मका: । अर्थात् शिव और रुद्र सर्वदेवमयहोने से ब्रह्म के ही पर्यायवाची शब्द हैं। प्राय: सभी पुराणों में शिवलिंगके पूजन का उल्लेख और माहात्म्य मिलता है। हिन्दू साहित्य में जहाँ कहीं भी शिवोपासनाका वर्णन है, वहाँ शिवलिंगकी महिमा का गुण-गान अवश्य हुआ है। लिंग शब्द का साधारण अर्थ चिह्न अथवा लक्षण है। सांख्य दर्शन में प्रकृति को, प्रकृति से विकृति को भी लिंग कहते हैं। देव-चिह्न के अर्थ में लिंग शब्द भगवान सदाशिवके निर्गुण- निराकार रूप शिवलिंग के संदर्भ में ही प्रयुक्त होता है। स्कन्दपुराणमें लिंग की ब्रह्मपरकव्याख् शिवलिंग की अर्चना अनादिकाल से जगद्व्यापक है। संसार के र्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद में
या इस प्रकार की गई है- आकाशं लिङ्गमित्याहु:पृथ्वी तस्यपीठिका। आलय: सर्वदेवानांलयनाल्लिङ्गमुच्यते॥ आकाश लिंग है और पृथ्वी उसकी पीठिका है। इस लिंग में समस्त देवताओं का वास है। सम्पूर्ण सृष्टि का इसमें लय होता है, इसीलिए इसे लिंग कहते हैं। शिवपुराणमें लिंग शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए कहा गया है- लिङ्गमर्थ हि पुरुषंशिवंगमयतीत्यद:। शिव- शक्त्योश्च चिह्नस्यमेलनंलिङ्गमुच्यते॥ अर्थात् शिव-शक्ति के चिह्नोंका सम्मिलित स्वरूप ही शिवलिंगहै। इस प्रकार लिंग में सृष्टि के जनक की अर्चना होती है। लिंग परमपुरुष सदाशिवका बोधक है। इस प्रकार यह विदित होता है कि लिंग का प्रथम अर्थ ज्ञापकअर्थात् प्रकट करने वाला हुआ, क्योंकि इसी के व्यक्त होने से सृष्टि की उत्पत्ति हुई। दूसरा अर्थ आलय है अर्थात् यह प्राणियों का परम कारण है और निवास-स्थान है। तीसरा अर्थ यह है कि प्रलय के समय सब कुछ जिसमें लय हो जाए
वह लिंग है। समस्त देवताओं का वास होने से यह लिंग सर्वदेवमयहै। लिंग के आधार रूप में जो तीन मेखलायुक्तवेदिका है, वह भग रूप में कही जाने वाली जगद्धात्री महाशक्ति है। अत: आधार सहित लिंग जगत् का कारण है, उमा-महेश स्वरूप लिंग और वेदी के समायोग में भगवान शंकर के अर्धनारीश्वररूप के ही दर्शन होते हैं। सृष्टि के समय परमपुरुष सदाशिवअपने ही अर्धागसे प्रकृति (शक्ति) को पृथक कर उसके माध्यम
से समस्त सृष्टि की उत्पत्ति करते हैं। इस प्रकार शिव- शक्ति का लिंग- योनिभाव और अर्द्धनारीश्वर भाव मूलत:एक ही है। सृष्टि के बीज को देने वाले परमलिंगरूपश्रीशिवजब अपनी प्रकृतिरूपा शक्ति(योनि) से आधार-आधेय की भाँति संयुक्त होते हैं, तभी सृष्टि की उत्पत्ति होती है, अन्यथा नहीं। श्रीमद्भगवद्गीताके 14वें अध्याय के तीसरे श्लोक से इस तथ्य की पुष्टि होती है-
मम योनिर्महद्ब्रह्मतस्मिन्गर्भदधाम्यहम्।
भवतं:सर्वभूतानांततोभवतिभारत॥

भगवान कहते हैं- महद्ब्रह्म(महान प्रकृति) मेरी योनि है, जिसमें मैं बीज देकर गर्भ का संचार करता हूँ और इसी से सम्पूर्ण सृष्टि (सब भूतों) की उत्पत्ति होती है। वस्तुत:अनादि सदाशिव-लिंगऔर अनादि प्रकृति- योनि के संयोग से ही सारी सृष्टि उत्पन्न होती है। इस दोनों के बिना सृष्टि की संरचना संभव नहीं है। शिवलिंग (परमपुरुष) जगदम्बारूपीजलहरी से वेष्टित होने से प्रकृतिसंस्पृष्टपुरुषोत्तम है-
पीठमम्बामयं सर्वशिवलिङ्गंचचिन्मयम्। अत: इसे जड समझना उचित न होगा। लिंगपुराणमें लिंगोद्भवकी कथा है। सृष्टि के प्रारंभ में ब्रह्मा और विष्णु के मध्य एक बार यह विवाद हो गया कि उन दोनों में कौन श्रेष्ठ है? इतने में उन्हें एक वृहत् ज्योतिर्लिगदिखाई दिया। उसके मूल और परिमाण का पता लगाने के लिए ब्रह्मा ऊपर गए और विष्णु नीचे, किंतु दोनों को उस लिंग के आदि-अन्त का पता न चला। तभी वेद ने प्रकट होकर उन्हें
समझाया कि प्रणव (ॐ) में अ कार ब्रह्मा है, उ कार विष्णु है और म कार महेश है। म कार ही बीज है और वही बीज लिंगरूपसे सबका परम कारण है। लिंगपुराणशिवलिं गको त्रिदेवमयऔर शिव-शक्ति का संयुक्त स्वरूप घोषित करता है-
मूले ब्रह्मा तथा मध्येविष्णुस्त्रिभुवनेश्वर:।
रुद्रोपरिमहादेव: प्रणवाख्य:सदाशिव:॥
लिङ्गवेदीमहादेवी लिङ्गसाक्षान्महेश्वर:।
तयो:सम्पूजनान्नित्यंदेवी देवश्चपूजितो॥
शिवलिंगके मूल में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु तथा शीर्ष में शंकर हैं। प्रणव (ॐ) स्वरूप होने से सदाशिव महादेव कहलाते हैं। शिवलिंग प्रणव का रूप होने से साक्षात् ब्रह्म ही है। लिंग महेश्वर और उसकी वेदी महादेवी होने से लिगांचर्नके द्वारा शिव-शिक्त दोनों की पूजा स्वत:सम्पन्न हो जाती है। भगवान सदाशिवस्वयं लिंगार्चन की प्रशंसा करते हैं-
लोकं लिङ्गात्मकंज्ञात्वालिङ्गेयोऽर्चयतेहि माम्।
न मेतस्मात्प्रियतर:प्रियोवाविद्य
तेक्वचित्॥
जो भक्त संसार के मूल कारण महाचैतन्यलिंग की अर्चना करता है तथा लोक को लिंगात्मकजानकर लिंग-पूजा में तत्पर रहता है, मुझे उससे अधिक प्रिय अन्य कोई नर नहीं है। इस तरह....... वस्तुत: शिवलिंग
साक्षात् ब्रह्म का ही प्रतिरूप है। इस तथ्य को जान लेने पर साधक को शिवलिंग में ब्रह्म का साक्षात्कार अवश्य होता है। जय महाकाल...!!
ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम् |
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतम्
भावतीतं त्रिगुणरहितं सदगुरुं तं नमामि ||
जहां सभी देवी-देवताओं को हमारे धर्म शास्त्रों में वस्त्राभूषणों से सुसज्जित बताया गया है वहीं भगवान शंकर को सिर्फ मृगचर्म ( हिरण की खाल ) लपेटे और भस्म लगाए बताया गया है। भस्म शिव का प्रमुख वस्त्र भी यही है क्योंकि शिव का पूरा शरीर ही भस्म से ढंका रहता है। संतों का भी एक मात्र वस्त्र भस्म ही है। अघोरी, संन्यासी और अन्य साधु भी अपने शरीर पर भस्म रमाते हैं। शिव का भस्म रमाने के पीछे कुछ वैज्ञानिक तथा
आध्यामित्क कारण भी हैं।
भस्म की एक विशेषता होती है कि यह शरीर के रोम छिद्रों को बंद कर देती है। इसको शरीर पर लगाने से गर्मी में गर्मी और सर्दी में सर्दी नहीं लगती। भस्म, त्वचा संबंधी रोगों में भी दवा का काम करती है। भस्म धारण करने वाले शिव यह संदेश भी देते हैं कि परिस्थितियों के अनुसार अपने आपको ढालना मनुष्य का सबसे बड़ा गुण है।

देवी-देवता

हमारे 33 करोड़ देवी-देवता हैं। इतने देवी-देवता कैसे ? यह प्रश्न कई बार हम अधिकांश लोगों के मन में उठता रहता है। सामान्यत: कहा जाता है कि हिंदुओं के शास्त्रों के अनुसार देवताओं की संख्या 33 कोटि बताई गई हैं। इन्हीं 33 कोटियों की गणना 33 करोड़ देवी-देवताओं के रूप में की जाती है। इन 33 कोटियों में आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, इंद्र और प्रजापति शामिल है। इन्हीं देवताओं को 33 करोड़ देवी-देवता माना गया है।
कुछ विद्वानों ने अंतिम दो देवताओं में इंद्र और प्रजापति के स्थान पर दो अश्विनीकुमारों को भी मान्यता दी है। श्रीमद् भागवत में भी अश्विनीकुमारों को ही अंतिम दो देवता माना गया है। इस तरह हिंदू देवी-देवताओं में तैंतीस करोड़ नहीं, केवल तैंतीस ही प्रमुख देवता हैं। कोटि शब्द के दो अर्थ हैं, पहला करोड़ और दूसरा प्रकार या तरह के। इस तरह तैंतीस कोटि को जो कि मूलत: तैंतीस तरह के देव-देवता हैं, उन्हें ही तैंतीस करोड़ माना गया है।
हमारे भारतीय देवी देवता हिंदू देववाद पर वैदिक, पौराणिक, तांत्रिक और लोकधर्म का प्रभाव है। वैदिक धर्म में देवताओं के मूर्त रूप की कल्पना मिलती है। वैदिक मान्यता के अनुसार देवता के रूप में मूलशक्ति सृष्टि के विविध उपादानों में संपृक्त रहती है। एक ही चेतना सभी उपादानों में है। यही चेतना या अग्नि अनेक स्फुर्लिंगों की तरह (नाना देवों के रूप में) एक ही परमात्मा की विभूतियाँ हैं। ( एकोदेव: सर्वभूतेषु गूढ़: )। वैदिक देवताओं का वर्गीकरण तीन कोटियों में किया गया है पृथ्वीस्थानीय, अंतरिक्ष स्थानीय और द्युस्थानीय। अग्नि, वायु, और सूर्य क्रमश: इन तीन कोटियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन्हीं त्रिदेवों के आधार पर पहले ३३ और बाद को ३३ कोटि देवताओं की परिकल्पना की गई है। ३३ देवताओं के नाम और रूप में ग्रंथभेद से बड़ा अंतर है। ‘शतपथ ब्राम्हण’ (४.५.७.२) में ३३ देवताओं की सूची अपेक्षाकृत भिन्न है जिनमें ८ वसुओं, ११ रुद्रों, १२ आदित्यों के सिवा आकाश और पृथ्वी गिनाए गए हैं। ३३ से अधिक देवताओं की कल्पना भी अति प्राचिन है। ऋग्वेद के दो मंत्रों में (३.९.९; १०. ५२. ६) ३३३९ देवताओं का उल्लेख है। इस प्रकार यद्यपि मूलरूप में वैदिक देववाद एकेश्वरवाद पर आधारित है, किंतु बाद को विशेष गुणवाचक संज्ञाओं द्वारा इनका इस रूप में विभेदीकरण हो गया कि उन्होंने धीरे धीरे स्वतंत्र चारित्रिक स्वरूप ग्रहण कर लिया। उनका स्वरूप चरित्र में शुद्ध प्राकृतिक उपादानात्मक न रहकर धीरे धीरे लोक आस्था, मान्यता और परंपरा का आधार लेकर मानवी अथवा अतिमानवी हो गया।
बजरंगबली को सिंदूर का चोला चढ़ाया जाता है। कहते हैं उन्हें सिंदूर चढ़ाने से सारे संकट और पीड़ाएं खत्म हो जाती हैं। ऐसा क्यों है? सिंदूर में ऐसा क्या है कि हनुमान को इतना प्रिय है। इसके पीछे एक कथा है और फिर इसका तार्किक व दार्शनिक पक्ष। कथा यह है कि एक बार हनुमान ने सीता को मांग में सिंदूर भरते देख लिया, जिज्ञासा हुई तो उन्होंने सीताजी से पूछ लिया कि मांग में सिंदूर क्यों लगाती हैं। सीताजी ने हनुमान को समझाया कि अपने सुहाग यानी भगवान राम की लंबी आयु के लिए। बस फिर क्या था भगवान की लंबी उम्र के लिए हनुमान ने पूरे शरीर पर सिंदूर पोत लिया। तभी से उन्हें सिंदूर का चोला चढ़ाने की परंपरा है।
बजरंगबली नाम के पीछे भी वज्र शब्द का योगदान है। संस्कृत में एक शब्द है वज्रः या वज्रम् जिसका अर्थ है बिजली, इन्द्र का शस्त्र , हीरा अथवा इस्पात। इससे ही हिन्दी का वज्र शब्द बना है। इन्द्र के पास जो वज्र था वह महर्षि दधीचि की हडि्डयों से बना
था। हनुमान वानरराज केसरी और अंजनी के पुत्र थे। केसरी को ऋषि-मुनियों ने अत्यंत बलशाली और सेवाभावी संतान होने का आशीर्वाद दिया। इसीलिए हनुमान का शरीर लोहे के समान कठोर था। इसीलिए उन्हें वज्रांग कहा जाने लगा। अत्यंत शक्तिशाली होने से वज्रांग के साथ बली शब्द जुड़कर उनका नाम हो गया वज्रांगबली जो बोलचाल की भाषा में बना बजरंगबली।
ब्रह्म पुराण के अनुसार मृत्यु के पश्चात जिस व्यक्ति का श्राद्घ कर्म नहीं किया जाता है उन्हें पितृ लोक में स्थान नहीं मिलता है। वह भूत-प्रेत बनकर भटकते रहते हैं और कष्ट भोगते हैं। श्राद्घ पक्ष आने पर यमराज की आज्ञा से विभिन्न योनियों में पड़े पितृगण श्राद्घ की इच्छा से अपनी संतानों के घर के दरवाजे पर आकर बैठ जाते हैं। पितृपक्ष के 15 दिनों तक जो व्यक्ति अपने पितरों को श्रद्घापूर्वक अन्न जल भेंट करते हैं तथा उनके नाम से ब्रह्मणों को भोजन कराते हैं वह पितरों के आशीर्वाद से पितृदोष से मुक्त हो जाते हैं। जो लोग पितृपक्ष में पितरों का श्राद्घ नहीं करते हैं उनकी संतान की कुण्डली में पितृदोष लगता है तथा अगले जन्म में वह भी पितृ दोष से पीड़ित होकर कष्ट प्राप्त करते हैं।
एक समय की बात है , शंकराचार्य हिमालय की ओर यात्रा कर रहे थे । तब उनके साथ उनके सभी शिष्य थे । सामने अलकनंदा नदी का विस्तीर्ण क्षेत्र था । किसी एक शिष्य ने शंकराचार्यजी की स्तुति करना प्रारंभ किया । उसने कहा, ‘‘ आचार्य, आप कितने ज्ञानी हैं ! यह अलकनंदा सामने से बह रही है ना ! कितना पवित्र प्रवाह है ये ! इससे भी कितने गुना अधिक ज्ञान आपका है ! महासागर समान !’’ उस समय शंकराचार्य जी ने हाथ का दंड पानी
में डुबाया, बाहर निकाला एवं शिष्य को दिखाया । ‘‘देख, कितना पानी आया ? एक बूंद आई उसपर ।'’ शंकराचार्य हंसकर बोले, ‘‘पागल, मुझे कितना ज्ञान है बताऊं ? अलकनंदा के पात्र में जितना जल है ना, उसका केवल एक बिंदु दंड पर आया । पूरे ज्ञान में से मेरा ज्ञान केवल उतना ही है । जब आदि शंकराचार्य ऐसा कहते है, तो आप-हम क्या है ?

Thursday, October 4, 2012

भारतीय संस्कृति




चार आश्रम       -ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास
चार वेद               -ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद
चार वर्ण               -ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र

चार पुरषार्थ         -धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष
चार
मठ
               -द्वारिका-शारदामठ, बद्रीनाथ-ज्योतिर्मठ, पुरी-गोवर्धनमठ, श्रृंगेरी-श्रृंगेरीमठ

चार धाम              -बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम, द्वारिका

षड दर्शन             -साँख्या, योग, मीमांसा, न्याय, वेदान्त, वैशेषिक

छः ऋतुएँ             -वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त, शिशिर

नौ ग्रह                  -रवि, चन्द्रमा, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु, केतु


सप्तर्षि                  -अत्रि, वशिष्ठ, भृगु, अंगिरस, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम
सात
वार
               -सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, रवि
दस दिशाएँ    -ईशान, पुर्व, आग्नेय, दक्षिण, नैऋत्य, पश्चिम, वायव्य, उत्तर, आकाश, पाताल उपनिषद          -ईश, कठ, केन, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैतरीय, ऎतरेय, छान्दोग्य, वृहदारण्यक
अठारह पुराण  -मत्स्य, मार्कण्डेय, भविष्य, भागवत, ब्रह्माण्ड, ब्रह्मवैवर्त, ब्राह्म, वामन, वराह, विष्णु,वायु,अग्नि, पद्म, लिंग, गरुड़, कुर्म, स्कन्ध